अभी हाल में मद्रास हाईकोर्ट ने हत्या के जुर्म में आजीवन कारावास की सजा काट रहे एक बन्दी( 40वर्ष) को पंद्रह दिन के लिए अपने घर जाने हेतु अवकाश स्वीकृत किया है जिससे वह पत्नी के साथ वैवाहिक सन्सर्ग कर सके. उसकी पत्नी ( 32 वर्ष) की याचिका पर निर्णय सुनाते हुए न्यायमूर्ति एस बिमला तथा न्यायमूर्ति टी कृष्णा वल्ली की खण्डपीठ ने कहा है कि हालाँकि पत्नी को कैद नहीं किया गया है , लेकिन प्रजनन की एक वैध अपेक्षा को अस्वीकार नहीं जा सकता है. यह कैदी पिछले 18वर्ष से जेल में है तथा उसकी पत्नी में कुछ शारीरिक दोष है लेकिन चिकित्सकों का कहना है कि यदि पति-पत्नी एक विशिष्ट समयावधि में शारीरिक सम्बन्ध बनायें तो सन्तानोपत्ति की सम्भावना प्रबल है . कैदी को इस हेतु पैरोल या अवकाश देने का कोई नियम तामिलनाडु सस्पेंसन ऑफ़ संटेंस रूल्स में नहीं है तथा सजायाफ्ता कैदी को जेल से बाहर भेजने पर उसकी जान जोखिम में हो सकती है , के आधार पर सरकार की ओर से विरोध किया गया था . लेकिन न्यायालय ने पाया कि जिस व्यक्ति की हत्या के लिए उसे सजा मिली है, उसके परिवार के लोग अब वहां नहीं रहते हैं,तथा यह नियमों में उपलब्ध "अन्य किसी असाधारण कारण" के अन्तरगत आच्छादित है . न्यायालय का कहना है कि सन्तानोत्पत्ति व्यक्ति की गरिमा से जुड़ा हुआ है और प्रत्येक बंदी को भी प्राप्त है . अदालत ने यह भी संप्रेक्षण किया कि यदि एक बार में पत्नी गर्भाधान नहीं कर पाती है तो चिकित्सकों की अनुशंसा पर उसे बाद में पुनः रिहाई दी जा सकती है.
कुछ वर्ष पूर्व एक महिला ने पंजाब राज्य मानवाधिकार आयोग के समक्ष एक याचिका प्रस्तुत कर मांग की थी कि उसे अपने जेल में बंदी पति से सहवास की अनुमति दी जाये जिससे वह स्त्रीत्व का मौलिक अधिकार -- मातृत्व सुख , प्राप्त कर सके. अपनी याचिका में इस महिला ने सप्रमाण कहा था कि वे विधिक रूप से विवाहित हैं तथा उनके पति विधि की सम्यक प्रक्रिया के द्वारा सजायाफ्ता हो जेल में हैं अतः वह मातृत्व सुख पाने से वंचित है.उनका कहना था चूँकि मातृत्व सुख प्राप्त करना उनका आधारिक मानवाधिकार है , अतः उन्हें अपने पति से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने की छूट दी जाये जिससे वे गर्भ धारण कर सकें. उस समय समाचार-पत्रों तथा मीडिया चैनलों में इस पर बहसें हुईं थी तथा एक बंदी के अधिकारों की सीमा रेखांकित करते हुए विरोध जताया गया था , वहीँ मानवाधिकार क्षेत्र में कार्य रत कई संगठनों ने कैदियों के प्रति संवेदनशील एवं प्रगतिशील कदम उठाने की अपीलें प्रसारित की थीं .
मद्रास हाईकोर्ट ने अपने सद्य निर्णय में इसे व्यक्ति की गरिमा के साथ जोड़ा है जो किसी बंदी को भी प्राप्त है . दण्ड शास्त्र के सुधारवादी दृष्टिकोण को रेखांकित करते हुए न्यायालय ने सरकार से एक समिति गठित करने के लिए भी अनुरोध किया है जो बंदियों के मानवोचित अधिकारों पर विचार करे तथा अपेक्षित पाए जाने पर सहवास के लिए अवकाश प्रदान करे.
न्यायालय का कहना है कि पत्नी को जेल में रखने से व्यवहारिक कठिनाइयाँ होंगी अतः पति को ही बाहर जाने की अनुमति दी जानी चाहिए . यदि कोई महिला या पुरुष बंदी सन्तानोत्पत्ति के लिए अपने अण्डाणु या शुक्राणु देकर वैज्ञानिक पद्धति द्वारा प्रजनन चाहता है तो उसकी भी अनुमति है , हाईकोर्ट के सद्य निर्णय पर आशानुरूप व्यापक प्रतिक्रियाएं हुईं है तथा निर्णय की सराहना की जा रही है.
विवाह की संस्था स्त्री-पुरुष के मध्य शारीरिक सम्बन्धों का वैधीकरण है. हिन्दू विवाह एक संस्कार है लेकिन योग्य संतान प्रजनन इसकी सार्थकता है , जिससे हर युगुल पितृ - ऋण से मुक्त होता है. मुस्लिम विवाह तो संतानोपत्ति हेतु की गयी संविदा ही है .प्रायः सभी धर्मो में इसे एक पवित्र बंधन तथा प्रजनन का हेतु माना गया है.वंश वृद्धि के साथ एक सभ्य समाज का सृजन , अनादि काल से विवाह का औचित्य सिद्ध करते रहे हैं.
प्रकृति ने स्त्री को मातृत्व दायित्व सौंपा है और सामान्य विधि भी स्त्रीत्व की सार्थकता इसी कारण स्वीकार करता है . एयर इंडिया बनाम नरगिस मिर्ज़ा ( १९८१ ) के बहुप्रचारित वाद में उच्चतम न्यायालय ने एयरलाइन्स के उस परिनियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया था जो परिचारिकाओं को विवाह करने या/तथा मातृत्व सुख प्राप्त करने पर नौकरी से ही निकाल देने का था . सुप्रीमकोर्ट ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह परिनियम मनमाना और सभ्य समाज की धारणाओं के विरोधी था.न्यायालय का मत था कि ऐसे प्रावधान से कोई भी विमान परिचारिका माँ बनने से अपने को वंचित करेगी जो प्रकृति का सहज और सामान्य अनुक्रम है . न्यायालय ने इसे भारतीय स्त्रीत्व की खुली अवमानना कहते हुए असंविधानिक करार दिया था.इससे पूर्व 1979में सी बी मुथम्मा बनाम भारत संघ के प्रकरण में भारतीय विदेश सेवा में कार्य रत महिलाओं को विवाह करने से पूर्व विभागीय अनुमति का प्रावधान करने वाले नियम को भी इसी आधार पर निरस्त कर दिया गया था.
सन्तानोत्पत्ति के अधिकार को लेकर कई रोचक मुक़दमे हुए हैं . पंजाब तथा हरियाणा हाईकोर्ट ने पुरुष बंदी के शुक्राणुओं को जेल से बाहर ले जाने की अनुमति दे दी थी जिससे उसकी पत्नी गर्भवती हो सके , लेकिन न्यायालय ने महिला बंदियों को उनके पतियों द्वारा गर्भवती करने के प्रश्न पर कहने से इन्कार कर दिया था क्योंकि गर्भाधान के बाद तथा प्रसूति की कितनी जिम्मेदारी राज्य की है, इस पर विचार नहीं किया गया था.
हरियाणा में पंचायत चुनाव में दो से अधिक जीवित बच्चों वाले नागरिकों के चुनाव लड़ने पर रोक है . एक मुस्लिम नागरिक ने इस प्रावधान की साम्विधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी कि उनके धर्म में चार विवाह की अनुमति है तथा नरगिस मिर्ज़ा के केस में सुप्रीमकोर्ट ने स्वयं अभिनिर्धारित किया था कि मातृत्व का अधिकार हर स्त्री का मौलिक अधिकार है . लेकिन न्यायालय ने भारत की अधिक जनसँख्या पर रोक लगाने वाले इस प्रावधान को संविधानिक घोषित किया था तथा कहा था कि ऐसे लोगों पर लगाया यह प्रतिबन्ध युक्तियुक्त है.न्यायालय का मत था कि चुनाव लड़ने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है तथा यह प्रतिबन्ध मुस्लिमों को चार शादी करने से वंचित नहीं करता है.
स्त्रियों के मातृत्व अधिकार पर सुप्रीमकोर्ट द्वारा निर्णीत वह वाद भी उल्लेखनीय है जिसके द्वारा कर्नाटक में विक्षिप्त महिलाओं के वन्ध्याकरण पर रोक लगायी गयी थी. यह पागल औरतें सड़क पर इधर-उधर पायी जाती थीं और निचले तबके के पुरुष इन्हें अपनी हवस का शिकार बनाते थे.एक गैर सरकारी संगठन ने मांग की थी कि इनका वन्ध्याकरण कर दिया जाय नहीं तो जो सन्ताने होंगी,उनकी देख-रेख कौन करेगा. लेकिन सुप्रीमकोर्ट ने अपनी असहमति जताई थी कि किसी भी स्त्री को मातृत्व सुखहीन नहीं बनाया जा सकता है.
सुरक्षित मातृत्व के लिए केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा कई योजनायें चलायी जा रहीं हैं . कैजुअल कर्मकारों को भी मातृत्व अवकाश देने का नियम लागू किया गया है.महिला अभ्यर्थियों को पीएचडी करने में अतिरिक्त समय दिया जाता है यदि इस बीच वे गर्भवती हो जाती हैं . सरोगेसी ( किराये की कोख ) के माध्यम से मातृत्व सुख भोग रही महिलाओं के लिए भी मातृत्व अवकाश तथा चाइल्ड केयर लीव का प्रावधान किया गया है.
यदि कोई अनब्याही महिला माँ बनती है तो उसे उस बच्चे के पिता का नाम बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है.एक मसीही अनब्याही महिला ने शिशु को जन्म दिया था.जब वह इसके लिए पासपोर्ट बनवाने गयी तो अधिकारियों ने पिता का नाम उल्लेख किये बिना पासपोर्ट बनाने से इन्कार कर दिया.सुप्रीमकोर्टने अभिनिर्धारित किया कि महिला को शिशु के पिता का नाम बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है.वैसे भी अब पिता के नाम की बजाय या साथ में माँ के नाम का उल्लेख वैकल्पिक कर दिया गया है.
मद्रास हाईकोर्ट के सद्य निर्णय से जहां मातृत्व-पितृत्व के अधिकारों पर विषद विवेचन हुआ है वहीँ एक बंदी के अधिकारों पर नयी बहस प्रारम्भ हुई है.सुनील बत्रा बनाम राज्य (१९७८) में सुप्रीमकोर्ट ने संप्रेक्षण किया था कि जेल में रहने का अर्थ यह नहीं है कि बंदी के मौलिक अधिकारों की बिदाई हो गयी है. इधर हाल के वर्षों में विकसित हुए कारागार विधिशास्त्र में कैदियों के विभिन्न अधिकार रेखांकित हुए है जिनमें मामले का त्वरित विचारण, परिवार के लोगों से सम्पर्क तथा कैदियों को यातना एवं उत्पीड़न के विरुद्ध सुरक्षा उपलब्ध है. जेलें लोक विरुद्ध संस्थायें हैं जो राज्य के दाण्डिक सिद्धांत, यथा असामर्थ्य, दण्ड,भायारोपन तथा सुधार का कार्य करती हैं.दरअसल कारागार से अभिप्रेत है व्यक्ति की स्वाधीनता का हरण तथा उसके अधिकारों पर प्रतिबन्ध .कारागार विन्यास में स्वायत्तता , विचरण की स्वतंत्रता , साहचर्य तथा निजत्व अत्यंत सीमित हो जाते हैं तथा व्यक्ति के सार्वजनिक एवं वैयक्तिक अधिकारों में कठोर संतुलन बनाये रखना मजबूरी होती है.
संतानोत्पत्ति एक स्वस्फूर्त अधिकार है जो अनेकानेक प्रश्न उपस्थित करता है.क्या राज्य का यह दायित्व है कि वह इस अधिकार में सहायक बने? क्या इसमें महिला बंदियों द्वारा आई वी एफ से गर्भाधान कराना शामिल है ?इस अधिकार को देने से अन्यों के अधिकारों पर असर पड़ सकता है. क्या सभी बंदियों को हरेक परिस्थितियों में यह अधिकार उपलब्ध किया जाना चाहिए? क्या प्रजनन से सम्बंधित सभी कार्यकलाप मौलिक अधिकारों के छाते के नीचे लाये जा सकते हैं? इन तथा ऐसे प्रश्नों के उत्तर खोजे जाने चाहिये तभी बंदी की गरिमा अक्षुण्य की जा सकती है.
डा. निरुपमा अशोक
प्राचार्य, भगवानदीन आर्य कन्या महाविद्यालय , लखीमपुर-खीरी
No comments:
Post a Comment