Tuesday, 20 February 2018

एक देश-एक चुनाव : सरकार इसके लिए पहले जनमत बनाए और पूरा होमवर्क करके ही इस पर कोई निर्णय ले...



राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में एक बार पुनः लोकसभा तथा विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने की आवश्यकता पर बल दिया है.प्रधान मंत्री ने भी पिछले कई मौकों पर" एक देश एक चुनाव" के लिए जनमत बनाने हेतु अपील की है. कहा जा रहा है कि28 राज्यों वाले देश में हमेशा कहीं ना कहीं के चुनाव हो रहे हैं,जिससे  दैनिन्दिनी काम में रूकावट आती है और विकास बाधित होता है . सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों इलेक्शन मोड में रहते हैं , आरोपों-प्रत्यारोपों  का सतत दौर चला करता है तथा आदर्श चुनाव संहिता लगने के कारण सरकारी कामकाज पर दुष्प्रभाव पड़ता है. यही नहीं इन चुनावों के नतीजे केंद्र सरकार के कामकाज का प्रतिबिम्ब करार दिए जाते  है तथा हर विजेता इनका अर्थान्वयन अपने पक्ष में प्रचारित करता पाया जाता है.यों तो जनतन्त्र में चुनाव रूटीन की बात होनी चाहिए तथा परिणामों को सतही स्तर पर ही लिया जाना चाहिए लेकिन हर हार जीत पर मीडिया भी चटखारे लेकर विश्लेषण और आकलन करती है.

सन १९६७ तक , अपवादों को छोड़कर ,लोकसभा तथा विधान सभाओं के चुनाव साथ ही होते थे. लेकिन १९७१ में इंदिराजी ने लोकसभा को भंग कर कराके समय से पूर्व चुनाव कराये थे, कांग्रेस विभाजन के बाद हुए इस चुनाव में उन्हें भारी बहुमत मिला था . १९७५ में आपातकाल के समय लोकसभा का कार्यकाल बढाया गया लेकिन जब १९७७ मे चुनाव हुए तो जनता पार्टी प्रचंड बहुमत में जीती.उस समय उत्तर भारत के नौ राज्यों में कांग्रेस की सरकारें थीं लेकिन सभी में कांग्रेस का सफाया हो गया था राष्ट्रपति ने इनकी विधान सभाओं को भंग कर नया जनादेश प्राप्त करने की सलाह दी जिसे न्यायलय में चुनौती दी गयी. राजस्थान राज्य बनाम भारत संघ (१९७७) में उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति की सलाह को राजनैतिक प्रश्न मानते हुए दखलंदाजी से मना कर दिया था. केंद्र सरकार  का मत  था किलोकसभा चुनाव में हार का अर्थ है कि कांग्रेस नागरिकों का विश्वास खो चुकी है अतः इसे सत्ता में बने रहने का औचित्य नहीं है.बाद में हुए चुनावों में सभी जगह जनता पार्टी की सरकार विजयी हुई थी.


केंद्र में किसी दल की विजय पर राज्य की विधान सभा को भंग कर चुनाव कराने  का येह सिलसिला चलता रहता  यदि १९९४ में एस. आर बोम्मई बनाम भारत संघ के सुप्रसिद्ध वाद में सुप्रीम कोर्ट ने अन्यथा सम्प्रेक्षण न  किया होता.इस वाद में निर्धारित किया गया कि एक परिसंघीय संविधान में केंद्र और राज्यों के चुनाव अलग-अलग आधारों पर होते हैं अतः राज्य सरकार को इस आधार पर बर्खास्त नहीं किया जा सकता कि लोकसभा में वह दल पराजित हो गया है जिसकी सरकार  है. इस निर्णय के बाद से राज्य सरकारों को बर्खास्त कर मध्यावधि चुनाव की परिपाटी पर लगाम लग गया .सुप्रीमकोर्टका यह निर्णय उन दलों के लिए संजीवनी बन कर आया जो क्षेत्रीय हैं और प्रायः राज्य विशेष तक ही सीमित हैं."एक देश -एक चुनाव" का मुखर विरोध भी येही दल कर रहे हैं.


एक परिसंघीय संविधान में राज्य तथा केंद्र दो इकाई हैं.सातवीं अनुसूची में इनके मध्य विधायी शक्तियों का बटवारा है. अन्य उपबन्धों में प्रशासकीय तथा वित्तीय सम्बंधों का प्रावधान है . तर्क की कसौटी पर यह कहना सही हो सकता है किदोनों के क्षेत्र अलग अलग हैं तथा जनादेश भी उन्ही कार्यों के लिए होगा लेकिन जमीनी हक़ीकत यह है कि नगर पालिका या जिला पंचायतों तक के चुनाओं की हार-जीत का विश्लेषण केंद्र में सत्तासीन दल के परिप्रेक्ष्य में किया जाता है. अमेरिका या इंग्लॅण्ड की भांति भारत में दो ही राष्ट्रीय दल नहीं हैं.यहाँ गठबन्धन हैं तथा विभिन्न दल अपने स्थानीय हितों के लिए अधिक संवेदनशील हैं. चुनावों में अक्सर दल की बजाय व्यक्ति विशेष की महत्ता होती है. अमेरिका की भांति भारत में किसी भी दल में प्राइमरी या दलीय चुनाव नहीं होते हैं.


संसदीय प्रणाली तथा अध्यक्षीय प्रणाली की अपनी विशेषताएं हैं.यह माना जाता है किसंसदीय प्रणाली एक उत्तरदाई शासन देती है जब कि अध्यक्षीय प्रणाली स्थायित्व देती है . अमेरिका में राष्ट्रपति तथा संसद दोनों का कार्यकाल निश्चित होता है तथा वहां चुनाव तय समय पर ही होता है जबकि इंग्लॅण्ड में संसद भंग करना कोई विशेष बात नहीं होती. वहां माना जाता  है किजैसेही आवश्यकता महसूस हो नया जनादेश लेना ही बेहतर विकल्प है.अक्सर सत्तारूढ़ दल में नेतृत्व परिवर्तन चुनाव की सीटी बजा देता है.संविधान निर्माताओं ने अपने यहाँ स्थायित्व से अधिक उत्तरदाई शासन पर विश्वास व्यक्त किया था . यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इंग्लॅण्ड हमारे उत्तर प्रदेश से भी छोटा है , परिसंघीय नहीं बल्कि ऐकिक है तथा वहां राज्यों की स्थिति वही है जो हमारे यहाँ नगरपालिकाओं की है.


इसमें कोई सन्देह नहीं है किबार-बार चुनाओं से आर्थिकव्यय  भार पड़ता है, प्रशासकीय दिक्कतें आती हैं तथा सरकारी कामकाज थम सा जाता है.आचारसंहिता लगते ही ओपिनियन पोल पर रोक लगा दी जाती है और नीति सम्बन्धी नयी घोषणाओं पर पाबन्दी लग जाती है.यदि कई जगह चुनाव हो रहे हैं तो वोट पड़ने के बाद मतपेटियां हफ़्तों बंद रहती हैं क्योंकि परिणामो से अगले चरण के चुनाव या दूसरे राज्य में होने वाले चुनाव प्रभावित हो सकते हैं.चुनाव परिणामों का राजनैतिक ही नहीं बल्कि अपना मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है जो देश के अन्दर ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बनता है. भारत ऐसे विकासशील देश को हमेशा चुनावी मोड में रखने की वकालत नहीं की जा सकती . लेकिन जैसा परिसंघ हमने विकसित किया है उसमे क्षेत्रीय दलों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती .यह क्षेत्रीय दल लोकसभा में अपनी स्थिति के कारण राजनैतिक मोल-भाव करते हैं और सत्तासीन सरकारें अक्सर उनके सामने निरीह सिद्ध हुईं हैं. 


मीडिया में कयास लगाए जारहे हैं किसन २०१९ के लोकसभा चुनाव के साथ किसप्रकार अधिसंख्य राज्यों के चुनाव कराये जा सकते हैं कतिपय क्षेत्रों में संविधान में संशोधन करने की भी बात कही जा रही है, लेकिन यह इतना आसाननहीं है क्योंकि क्षेत्रीय दल विरोध कर रहे हैं.


एक साथ चुनाव कराने से राजनीति में धनबल तथा अपराधीकरण पर अंकुश लगेगा तथा स्थानीय कार्यकर्ताओं की अहमियत बढ़ेगी . सन १९६७ तक संसद का चुनाव लड़ने वाले लोकल नेताओं पर ही निर्भर रहते थे.तब राजनीति नीचे से ऊपर होती थी जबकि अब उसका विलोम है. "एक देश -एक चुनाव" के लिए जनमत जागृत करने की आवश्यकता है तथा इस पर पूरा होमवर्क करके ही कोई निर्णय लिया जाना बेहतर होगा.स्थायित्व तथा उत्तरदायित्व एक दूसरे के स्पर्धी नहीं बल्कि पूरक बनने चाहिए.

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