Friday, 16 March 2018

अप्रतिरोधी मृत्यु-वरण की वैधता के निहितार्थ




कामनकाज बनाम भारत संघ की जनहित याचिका पर निर्णय देते हुए सुप्रीमकोर्ट की सांविधानिक पीठ ने गरिमा के साथ मृत्यु को एक मौलिक अधिकार मानते हुए अनिवारक / अप्रतिरोधी कृपा मृत्यु को संविधान के अनुच्छेद 21में शामिल मानते हुए वैधता प्रदान की है. अपनी आसन्न मृत्यु की स्थिति में जिन्दगी को अनावश्यक रूप से लम्बा करने हेतु कृत्रिम चिकित्सकीय सहायता को मना करने वाली वसीयत को भी वैधता प्रदान की गयी है. इस सम्बन्ध में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित मैनेजमेंट आफ पेशेंट विद टर्मिनल इलनेस,विड्रावल आफ मेडिकल लाइफ सपोर्ट विधेयक का संज्ञान लेते हुए सुप्रीमकोर्टने व्यापक दिशा-निर्देश भी जारी किये हैं.

जस्टिस काटजू ने २०११ में अरुणा शानबाग बनाम भारत संघ के मामले में अप्रतिरोधी इच्छा मृत्यु की अनुमति दिए जाने पर सहमति व्यक्त की थी लेकिन इस पर विशदविचार-विनिमय की आवश्यकता पर भी जोर दिया था.उसी क्रम में उच्चतम न्यायालय ने उपरोक्त निर्णय दिया है.

दरअसल पी.रथीराम बनाम भारत संघ (१९९४)में आत्महत्या को अपराध घोषित करने वाली भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309के परिप्रेक्ष्य में सुप्रीमकोर्टने मृत्यु वरण को जीवन के अधिकार में शामिल माना था तथा आपवादिक स्थिति में न्यायालय की कड़ी निगरानी में इसकी अनुमति देने का मंतव्य व्यक्त किया था जिस पर व्यापक प्रतिक्रिया और विरोध हुआ था. और तो और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में हेलमेट को अनिवार्य करने वाले ट्रेफिकनियम की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि जब आत्म हत्या करना एक अधिकार है तब ऐसे नियम बेमानी हैं.इसी के तुरंत बाद ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य ( १९९६ )में रथी राम के निर्णय को पलटते हुए सुप्रीमकोर्ट ने सहयोगात्मक आत्महत्या या कृपा मृत्यु को असंविधानिक  करार दिया था .पांच जजों की सांविधानिक पीठ ने संप्रेक्षण किया था कि मृत्यु वरण का अधिकार जीवन के अधिकार का प्रतिलोमी है तथा जीवन के नैसर्गिक अन्त तक गरिमा के साथ जीवन का अधिकार ही अनुच्छेद 21 में अनुमन्य है.
विश्व के कई देशों में कृपा मृत्यु अनुमत है.स्विट्ज़रलैंड ऐसे देश में तो बाकायदा नर्सिंग होम है जो लोगों को शान्ति से मरने की व्यवस्था का वादा करते हैं. जीवन की सँझा में कई लोग ऐसी व्यवस्था का स्वागत करते हैं तथा परम शान्ति से महाप्रयाण करते हैं. भारतीय मनीषा में भी सन्यास का प्रावधान है जब लोग सांसारिक क्रिया कलापों से अपने को मुक्त करके घर-परिवार छोड़ जाते हैं.जैन धर्म में 'संथारा"ऐसी परिपाटी प्रचलित है जब लोग आसन्न मृत्यु का आलिंगन करने के लिए भोजन- पानी छोड़ कर संसार से विदा लेने के लिए उद्दत होते हैं. संत बिनोबा भावे ने भी इसी प्रकार से  अपना शरीर छोड़ा था. "संथारा"को असंवैधानिक परिपाटी घोषित करनेवाले राजस्थान हाईकोर्टके निर्णय पर सुप्रीमकोर्ट ने रोक लगा रखी है. सद्य निर्णय से उसका वैधी करण हो गया है.

यह सर्व मान्य तथ्य है कि संविधान सहित सारे क़ानून न केवल जीवित लोगों के लिए हैं बल्कि गरिमा के साथ जीवन यापन करने के लिए आधार / वातावरण तैयार करते हैं.लेकिन यह भी सही है कि कई बार ऐसी शारीरिक व्याधियां हो जाती हैं कि जीवन दूभर ही नहीं असहनीय हो जाता है.परिवार तथा सम्बन्धियों से सहायता नहीं मिलती तथा तिल-तिल कर मरने की अपेक्षा मृत्यु वरण ही एकमात्र विकल्प होता है लेकिन कानून इसकी अनुमति नहीं देता. इस प्रसंग में वेंकटेश प्रकरण का स्मरण करके सिहरन होती है जब एन नवयुवक को असाध्य बीमारी के कारण धीरे-धीरे मरते हुए अभिशप्त माँ ने आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट से अनुमति चाही थी कि उसके बेटे को कृपा मृत्यु दे दी जाये तथा उसकी आँखों तथा अन्य उपयोगी अंगों को ज़रूरत मंदों को दे दिया जाय, जिससे कइयों को रौशनी एवं जीवन दान मिल सके , लेकिन न्यायालय ने असमर्थता  व्यक्त की थी. यदि अनुमति दी गयी होती तो वेंकटेश आज भी जिन्दा होता!

सद्य प्रकरण पर बहस करते हुए यह भी आशंका व्यक्त की गयी थी कि ऐसी अनुमति का दुरुपयोग हो सकता है.समाचार पत्रों में अक्सर सुर्खियाँ दिखलाई पड़ती हैं जब संपत्ति / अनुकम्पा नियुक्ति आदि के लिए पिता तक की हत्या कर दी जाती है. सुप्रीमकोर्ट ने सिर्फ दुरूपयोग की आशंका के आधार पर अप्रतिरोधी कृपा मृत्यु को अवैध घोषित करने से मना कर दिया, तथा उन्नत राष्ट्रों के उदाहरण को आत्मसात करते हुए सहमति व्यक्त की है. अभी क्रियात्मक कृपा मृत्यु की अनुमति नहीं दी गयी है.

उपरोक्त के साथ ही जीवित व्यक्तियों द्वारा आसन्न मृत्यु की बेला में जिंदगी को अनावश्यक खीचने वाले कृत्रिम उपायों से विरत रहने की इच्छा व्यक्त करने वाली वसीयत को भी वैधता प्रदान कर दी है हालाँकि इसके लिए विशिष्ट दिशा निर्देश भी जारी किये हैं.अभी जटिल प्रक्रिया वाले आपरेशनों आदि में रोगी या उसके परिजनों से जोखिम की अनुमति वाला प्रोफोर्मा भरवाया जाता है लेकिन पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति द्वारा अपने बारे में की गयी ऐसी वसीयत मान्य नहीं थी. यों तो मेडिकल साइंसेजकाफी उन्नति कर चुकी है तथा कईयों ने अपने असाध्य रोग से पीड़ित शरीर को इस आशा के साथ फ्रीज़ करा लिया है कि शायद किसी दिन उस रोग का इलाज निकल आये और वे फिर से सामान्य जीवन जीने लायक हो जाएँ लेकिन मृत्यु एक अटल सत्य है तथा सारे क़ानून मानव जीवन की स्वाभाविक प्रक्रियाओं को सामान्य मान कर ही बनाये गए हैं ,अतः गरिमा के साथ मृत्यु वरण के अधिकार को अमली जामा पहनाने के लिए आई.पी.सी.की धारा 309 सहित कई अन्य प्रावधानों को विधिस्वरूप देना अनिवार्य होगा.इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए भी आवश्यक व्यवस्था करनी होगी. मानव अंग प्रत्यारोपण के वाणिज्यिक उपयोग को रोकने वाले कानून को लागू करने में आ रही दिक्कतों के उदाहरण दृष्टव्य हैं जब बड़े नामी-गरामी अस्पतालों से विचलित करने वाले किस्से प्रायः रोज़ ही सुनने को मिल रहे हैं. 

डा निरुपमा अशोक,
प्राचार्या, भगवानदीन आर्य कन्या पी. जी. कॉलेज , लखीमपुर -खीरी

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