सरोगेसी कानून : अनसुलझे प्रश्न
डॉक्टर निरुपमा अशोक
अभी हाल में केंद्र सरकार ने सरोगेसी कानून ( किराये पर कोख देने सम्बन्धी विधि ) के प्रारूप को अन्तिम रूप दिया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसे स्वीकार कर लिया है तथा आशा की जानी चाहिए कि संसद के आगामी सत्र में इस पर विचार विमर्श होगा। प्रस्तावित कानून के ज़रिये उन दम्पत्तियों को अपने किसी रिश्तेदार या दोस्त की कोख इस्तेमाल करने की छूट होगी जो स्वयं अक्षम हैं तथा उनके विवाह हुए पांच वर्ष बीत चुके हैं लेकिन उन्हें संतान सुख नहीं मिल पाया है। प्रस्तावित कानून के द्वारा कोख के व्यावसायिक उपयोग पर पूरी तरह से रोक लगाई गयी है। यही नहीं विदेशियों , एकल पुरुष तथा स्त्रियों , समलैंगिकों तथा लिव - इन रिश्तों में रह रहे युगलों को भी इसके दायरे से दूर रखा गया है। दरअसल कानून के द्वारा सिर्फ विवाहित युगलों को सरोगेसी सुविधा उपलब्ध कराने के पीछे विवाह-संस्था की पवित्रता को अक्षुण्ण रखते हुए उन्हें संतान सुख दिलाने की मंशा पूरी हो रही है।
अभी तक सरोगेसी को लेकर भारत में कोई विशिष्ट कानून नहीं है। देश में उन्नत तथा अत्यंत आधुनिक मेडिकल सेवाओं के उपलब्ध होने के कारण पिछले वर्षों में टेस्ट ट्यूब बेबी तथा सरोगेसी का व्यापार प्रायः दो बिलियन डॉलर तक पहुँच गया, बताया जा रहा है। केवल सरोगेसी के द्वारा पच्चीस हज़ार शिशु जन्म ले रहे हैं जिनमे अस्सी प्रतिशत विदेशी दम्पत्तियों के हैं। गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान में ऐसे नर्सिंग होमों की बाढ़ आ गयी है जो आई ० वी ० ऍफ़ ० या इससे मिलती जुलती तकनीकों से ऐसे व्यक्तियों को संतान सुख दे रहे हैं जो इसके लिए व्यय वहन करने के लिए तैयार हैं। बेकारी और गरीबी की मार झेल रही बहुत सी स्त्रियां इसके लिए सहमति भी दे रहीं हैं तथा इससे प्राप्त धन से वे अपने परिवार का पोषण कर रही हैं। कई स्त्रियों ने तो अपनी कोख पांच छः बार तक किराये पर दी है , जिससे उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ा है। प्रस्तावित कानून में अधिकतम एक बार ही किसी की कोख का अन्यों द्वारा इस्तेमाल किया जा सकेगा।
सरोगेसी सम्बंधित विधि के न होने के कारण मामले को संविदा अधिनियम तथा अन्य लागू कानूनों की परिधि में निपटाया जाता है। दरअसल , सरोगेसी अनुबंध में तीन पक्षकार होते हैं :एक जैविक ( बायोलॉजिकल ) दम्पति , दूसरी सरोगेट स्त्री (जिसकी कोख इस्तेमाल की जानी है ) तथा तीसरा वह डॉक्टर या नर्सिंग होम जिसके द्वारा यह सब कार्यवाही संचालित होती है। ऐसे करार में जननी को निश्चित अवधि तक नर्सिंग होम में ही रहना होता है जिसका खर्च उठाया जाता है , कोख का किराया दिया जाता है तथा चिकित्सक को उसकी सेवा के बदले ऊंची फीस दी जाती है। लेकिन इन अनुबंधों में सबसे कमजोर पक्ष वह जननी होती है जिसकी कोख का इस्तेमाल होता है। अनुबंध में प्रावधान रखा जाता है की यदि कोई जटिलता होती है या शिशु की जान को खतरा हो तो शिशु को बचाया जायेगा। एक बहु प्रचारित मामले में गर्भ के आठवें महीने में सरोगेट स्त्री गिर पड़ी। डॉक्टरों ने जननी की जान बचाने की बजाय आपरेशन कर गर्भस्थ शिशु को तो बचा लिया लेकिन स्त्री की मृत्यु हो गयी। फिर भी उसके परिवार जन प्रतिकर नहीं पा सके। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गर्भ के चिकित्सकीय समापन अधिनियम में माँ को बचाने को प्राथमिकता दी गयी है।
सरोगेसी से सम्बन्धित बहुत से मामले न्यायालय की चौखट तक पहुंचे हैं। सन 2008 में एक जापानी डॉक्टर दम्पति ने गुजरात की स्त्री को सरोगेट अनुबंधित किया तथा उससे एक कन्या का जन्म हुआ , लेकिन इस बीच इस युगल में तलाक़ हो गया। यह बच्ची माता-पिता विहीन तो हुई ही , राष्ट्रीयता विहीन भी हो गयी। अंततः उस बच्ची को उसकी दादी माँ ले गई लेकिन उसे नागरिकता नहीं मिली थी। ज्ञातव्य है कि जापान में सरोगेसी पर प्रतिबन्ध है। सन 2012 में एक सिहरन पैदा करने वाला मामला प्रकाश में आया। एक ऑस्ट्रेलियाई युगल ने सरोगेसी हेतु अनुबंध से पैदा हुए जुड़वाँ बच्चों में से एक को ही स्वीकार किया तथा अपने साथ ले गए। दूसरा शिशु यहीं रह रहा है जो उस स्त्री पर दायित्व बन गया है। इस मामले में एक ऑटो चालक की भूमिका प्रकाश में आयी जिसने स्त्री को मात्र पिचहत्तर हज़ार रुपये दिलाये तथा बिचौलिये और स्वयं ने बड़ी रकम उदरस्थ कर ली। चेन्नई की एक अविवाहित गरीब स्त्री के गले में यह शिशु आ पड़ा है। सन 2014 में दिल्ली में एक स्त्री का बीज ( ओवम )प्रत्यावर्तित करते हुए सर्जरी के दौरान मौत हो गयी। ऐसे अनेकानेक उदाहरण चर्चा में आये हैं जिनमे सरोगेट स्त्री को कोई प्रतिकर प्राप्त नहीं हुआ है।
एक अन्य रोचक किस्सा इंग्लैण्ड का है जिसमे किराये की कोख देने वाली स्त्री ने उस नवजात शिशु को वापस करने से इन्कार कर दिया जिसके लिए गर्भधारण करने से पूर्व उसने अनुबंध किया था तथा प्रतिफल के रूप में अच्छी खासी रकम ली थी। बताया जाता है कि एक निःसंतान दम्पति ने अखबार में विज्ञापन देकर ऐसी स्त्री की दरकार की थी जो किराया लेकर अपनी कोख में दम्पति के निषेचित डिम्ब को धारण करे तथा प्रसूति के छह महीने के बाद शिशु को उसके जैविक माता-पिता को वापस कर दे। लेकिन प्रसवोपरांत सरोगेट महिला को उस शिशु से इतना भावनात्मक लगाव हो गया कि उसने वह सारा धन ब्याज सहित लौटाने की पेशकश की लेकिन बच्चे को अपने से अलग करने से इनकार कर दिया। मामला अदालत गया लेकिन फैसला जननी माँ के पक्ष में सुनाया गया। अदालत का कहना था कि नौ महीने अपनी कोख में पालने वाली माँ का उस बच्चे पर प्रथम अधिकार है तथा निः संतान दम्पति को ऐसी स्त्री से संविदा भंग के लिए मात्र प्रतिकर पाने का अधिकार है। ऐसी संविदा का विशिष्ट अनुपालन न तो विधिक रूप से संभव और न ही उचित , क्योंकि स्त्री बीज ( ओवम ) तथा स्पर्म के अलावा बाकी सब कुछ इसी सरोगेट स्त्री का था। शिशु का बृहत्तर हित भी इसी में है कि उसे अपनी माँ के पास रहने दिया जाये। ऐसे ही एक अन्य रोचक मामले में विवाह-विच्छेद के लिए मुकदमा लड़ रहे दो पतियों ने अपनी पत्नियों की इस मांग को मानने से इनकार कर दिया जिसके द्वारा उन्होंने बिना शारीरिक सम्बन्ध बनाये आई ० वी ० एफ ० तकनीक से गर्भवती होने की मांग की थी।
सरोगेसी को लेकर नीति,नैतिकता तथा मर्यादा के कई प्रश्न उलझे हुए हैं। प्रायः प्रत्येक धर्म में विवाह की संस्था पवित्र मानी गयी है तथा इससे पैदा हुई संतान को ही वैधानिकता प्रदान की गयी है.गर्भपात कराना अवैध ही नहीं अपराध है। संतान उत्पत्ति के नैसर्गिक नियमो में किसी भी रूकावट को मान्यता नहीं है। कई सम्प्रदायों में नियोग पद्धति द्वारा संतानोत्पत्ति अनुमत है लेकिन यह पुरुषों की नपुंसकता का हल है। स्त्री की प्रजनन क्षमता क्षीण होने पर दूसरी स्त्री से विवाह होता था लेकिन अब यह अवैध है। हिन्दू विवाह अधिनियम के द्विविवाह पर रोक लगाने जाने वाले प्रावधान को उच्चतम न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि प्रत्येक हिन्दू की कपाल क्रिया करने के लिए पुत्र आवश्यक है तथा उसे पुत्र प्राप्ति के लिए दूसरा विवाह करने की अनुमति होनी चाहिए जो उसका धार्मिक अधिकार है , माना नहीं गया था। न्यायालय का कहना था कि यदि किसी हिन्दू के पुत्र नहीं हो रहा है तो वह दत्तक ग्रहण कर सकता है लेकिन दूसरा विवाह अवैध होगा।
दरअसल सरोगेसी तकनीक की मांग में इसलिए भी बाढ़ आई है कि अब अक्षम दम्पति ही नहीं बल्कि एकल पुरुष तथा स्त्रियां , समलैंगिक जोड़े तथा लिव -इन रिश्तों में रहने वाले युगल गर्भाधान के पचड़े में पड़े बिना संतानोत्पत्ति चाहते हैं क्योंकि मेडिकल साइंस तथा जेनेटिक इंजीनियरिंग ने इसे संभव बना दिया है। विधि की दृष्टि से लिव -इन रिलेशनशिप तथा एकल पुरुष-स्त्री द्वारा संतानोत्पत्ति अवैध नहीं है। कई देशों में लिव -इन रिश्तों को विवाह के समकक्ष मान्यता मिली हुई है। हर स्त्री को अपने शरीर पर पूरा अधिकार है तथा गर्भधारण/ गर्भपात उसकी अपनी मर्ज़ी है जिस पर कानून रोक नहीं लगा सकता। हाँ , शरीर के व्यवसायिक उपयोग को रोक जा सकता है क्योंकि यह प्रचलित मान्यताओं तथा नैतिकता के विरुद्ध है। वैश्यावृत्ति पर लगी रोक इसी कारण वैध है। कहा जा रहा है कि सरोगेसी भी प्रच्छन्न वैश्यावृत्ति है क्योंकि कोख को किराये पर देना उसी का एक प्रकार है। स्त्री स्वातंत्र्य के पुरोधा इसका पुरज़ोर विरोध करते हैं। उनका कहना है कि यदि पुरुष अपना शुक्राणु बेच सकता है तो स्त्री अपनी कोख क्यों नहीं दे सकती? ' विकी डोनर 'फिल्म की कथा वस्तु इसीसे मिलती जुलती है।
प्रस्तावित कानून के बनने से पहिले ही उसकी आलोचना प्रारम्भ हो गयी है। विदेशी युगलों को अनुमति न देने का तो समर्थन हो रहा है लेकिन अन्यों का नहीं। कई देशों में इस पर पूर्णतः प्रतिबन्ध है। लेकिन एकल स्त्री पुरुषों तथा लिव -इन रिश्तों को कानूनी मान्यता प्राप्त है। यह अभी तक गोद लेकर अपनी इच्छा पूरी करते हैं। जो दम्पति सक्षम हैं वे भी इसके द्वारा संतान चाहते हैं। बॉलीवुड के एक पॉपुलर स्टार ने भी इसी प्रकार एक संतान प्राप्त की बताया जा रहा है,जबकि उनके अपने पुत्र-पुत्री हैं. थोड़े दिन पहले एक अनब्याही महिला ने उच्चतम न्यायालय में गुहार लगाईं थी कि उसके शिशु को अपनी माँ के नाम के साथ पासपोर्ट जारी किया जाए तथा अधिकारियों को आदेश दिया जाए कि वे शिशु के पिता के नाम बताने पर जोर न दें। न्यायालय ने इसकी अनुमति भी दे दी। ऐसे एकल स्त्री पुरुषों की संख्या बहुतायत में है जो विवाह बंधन में बंधे बिना संतान चाहतें हैं। समलैंगिकों की भी पर्याप्त संख्या है जो सरोगेसी के माध्यम से संतानोत्पत्ति चाहते हैं। चूँकि इस पद्धति में बीज / स्पर्म अपना होता है अतः ऐसे बच्चे में अपने पन का भाव अधिक रहता है। यही नहीं , समय दूर नहीं है जब मानव-क्लोन बनना वास्तविकता हो जाएगी। इसमें भी सरोगेसी तकनीक का सहारा लेना मजबूरी होगी।
भारतीय संविधान में यों तो स्त्रियों को बराबरी का हक़ दिया गया है तथा कुछ स्थितियों में अतिरिक्त रक्षोपाय भी हैं , लेकिन परिवार तथा विवाह संस्था को बचाये रखने के लिए दम्पतियों पर बंदिशें भी हैं। नरगिस मिर्ज़ा के केस में यह निर्धारित किया जा चुका है क़ि हर स्त्री को माँ बनने का नैसर्गिक अधिकार है लेकिन यह स्वयं के सुख के लिए होना चाहिए तथा स्वीकार्य मापदण्डों के अन्तर्गत होना चाहिए. सरोगेसीपर चल रही बहस में नीति , नैतिकता तथा मर्यादा के प्रश्नों के साथ स्त्री स्वातंत्र्य अधिकारों के मध्य सामंजस्य की मांग की जा रही है।
सरोगसी कानून को लेकर अभी यही प्रश्न तैर रहे हैं। उस शिशु के अधिकारों पर चर्चा नहीं हो रही है जो इस माध्यम से जन्म ले रहा है। वयस्क होने पर क्या उसे कपनी जननी माँ को भरण- पोषण देने के लिए बाध्य किया जा सकेगा या घरेलू हिंसा अधिनियम के अन्तर्गत दाई ठहराया जा सकेगा, यदि उसके जैविक माता-पिता की मृत्यु हो जाए ? क्या जैविक माता-पिता अनुबंध करके उस सरोगेट को अपनी संपत्ति में हिस्सा देकर बच्चे के अधिकारों पर कुठारा घात कर सकतें हैं?यदि स्त्री बीज(ओवम) के साथ-साथ पुरुष शुक्राणु भी एक से अधिक लोगों के लिए जाएँ तो स्थिति और भी जटिल तथा दुरूह हो जाएगी।शिशु की पहचान के संकट के साथ प्रचलित मान्यतायों तथा विधिक प्रावधानों की पुनर्व्याख्या करनी होगी। नागरिकता तथा राष्ट्रीयता के प्रश्न भी महत्वपूर्ण हैं।
भारत में सरोगेसी इंडस्ट्री अपने शबाब पर है। इन्टरनेट पर खुलेआम ऐसी स्त्रियों के फोटो तथा अन्य जानकारी उपलब्ध है जो अपनी कोख को किराये पर देने के लिए तैयार हैं। शुक्राणु देने वालों के बारे में भी जानकारी उपलब्ध है। गोपनीयता की भी गारन्टी दी जा रही है। आई ० वी ० ऍफ़ ० तकनीक को विस्तार से समझाया जाता है तथा जोखिम भी बतलाई जाती है। इन सबका खुलेआम विज्ञापन किया जा रहा है। आशंका व्यक्त की जा रही है की यदि इस पर कानूनी रोक लगाई गयी तो इसमें भी अवैध धंधा फलने फूलने लगेगा। मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम में सिर्फ नजदीकी रिश्तेदारों/मित्रों के अंग लेने का प्राविधान है तथा इसके व्यवसायिक उपयोग पर रोक है लेकिन इसमें काला बाजार फल-फूल रहा है और कई नामी-गरामी अस्पताल भी इसमें लिप्त बताये जा रहे हैं। यह एक यक्ष प्रश्न है क़ि क्या कोई भाभी,बहन या साली अपने देवर/जेठ ,भाई या जीजा के लिए अपना गर्भ उधार देने के लिए राज़ी हो जाएगी ? थोड़े दिन पूर्व बरेली से समाचार मिला था कि दो बहिनों में एक प्रजनन के लायक नहीं थी तथा दूसरी बहन आई वी ऍफ़ से जीजा के शुक्राणु से डिम्ब को निषेचित कर अपने गर्भ से संतान पैदा करने को राजी थी, लेकिन पत्नी राजी नहीं हुई। गनीमत थी कि बहनों की माँ सक्षम थी और उसीने अपने दामाद की संतान को जन्म दिया।
सरोगेसी से सम्बन्धित बहुत से मामले न्यायालय की चौखट तक पहुंचे हैं। सन 2008 में एक जापानी डॉक्टर दम्पति ने गुजरात की स्त्री को सरोगेट अनुबंधित किया तथा उससे एक कन्या का जन्म हुआ , लेकिन इस बीच इस युगल में तलाक़ हो गया। यह बच्ची माता-पिता विहीन तो हुई ही , राष्ट्रीयता विहीन भी हो गयी। अंततः उस बच्ची को उसकी दादी माँ ले गई लेकिन उसे नागरिकता नहीं मिली थी। ज्ञातव्य है कि जापान में सरोगेसी पर प्रतिबन्ध है। सन 2012 में एक सिहरन पैदा करने वाला मामला प्रकाश में आया। एक ऑस्ट्रेलियाई युगल ने सरोगेसी हेतु अनुबंध से पैदा हुए जुड़वाँ बच्चों में से एक को ही स्वीकार किया तथा अपने साथ ले गए। दूसरा शिशु यहीं रह रहा है जो उस स्त्री पर दायित्व बन गया है। इस मामले में एक ऑटो चालक की भूमिका प्रकाश में आयी जिसने स्त्री को मात्र पिचहत्तर हज़ार रुपये दिलाये तथा बिचौलिये और स्वयं ने बड़ी रकम उदरस्थ कर ली। चेन्नई की एक अविवाहित गरीब स्त्री के गले में यह शिशु आ पड़ा है। सन 2014 में दिल्ली में एक स्त्री का बीज ( ओवम )प्रत्यावर्तित करते हुए सर्जरी के दौरान मौत हो गयी। ऐसे अनेकानेक उदाहरण चर्चा में आये हैं जिनमे सरोगेट स्त्री को कोई प्रतिकर प्राप्त नहीं हुआ है।
एक अन्य रोचक किस्सा इंग्लैण्ड का है जिसमे किराये की कोख देने वाली स्त्री ने उस नवजात शिशु को वापस करने से इन्कार कर दिया जिसके लिए गर्भधारण करने से पूर्व उसने अनुबंध किया था तथा प्रतिफल के रूप में अच्छी खासी रकम ली थी। बताया जाता है कि एक निःसंतान दम्पति ने अखबार में विज्ञापन देकर ऐसी स्त्री की दरकार की थी जो किराया लेकर अपनी कोख में दम्पति के निषेचित डिम्ब को धारण करे तथा प्रसूति के छह महीने के बाद शिशु को उसके जैविक माता-पिता को वापस कर दे। लेकिन प्रसवोपरांत सरोगेट महिला को उस शिशु से इतना भावनात्मक लगाव हो गया कि उसने वह सारा धन ब्याज सहित लौटाने की पेशकश की लेकिन बच्चे को अपने से अलग करने से इनकार कर दिया। मामला अदालत गया लेकिन फैसला जननी माँ के पक्ष में सुनाया गया। अदालत का कहना था कि नौ महीने अपनी कोख में पालने वाली माँ का उस बच्चे पर प्रथम अधिकार है तथा निः संतान दम्पति को ऐसी स्त्री से संविदा भंग के लिए मात्र प्रतिकर पाने का अधिकार है। ऐसी संविदा का विशिष्ट अनुपालन न तो विधिक रूप से संभव और न ही उचित , क्योंकि स्त्री बीज ( ओवम ) तथा स्पर्म के अलावा बाकी सब कुछ इसी सरोगेट स्त्री का था। शिशु का बृहत्तर हित भी इसी में है कि उसे अपनी माँ के पास रहने दिया जाये। ऐसे ही एक अन्य रोचक मामले में विवाह-विच्छेद के लिए मुकदमा लड़ रहे दो पतियों ने अपनी पत्नियों की इस मांग को मानने से इनकार कर दिया जिसके द्वारा उन्होंने बिना शारीरिक सम्बन्ध बनाये आई ० वी ० एफ ० तकनीक से गर्भवती होने की मांग की थी।
सरोगेसी को लेकर नीति,नैतिकता तथा मर्यादा के कई प्रश्न उलझे हुए हैं। प्रायः प्रत्येक धर्म में विवाह की संस्था पवित्र मानी गयी है तथा इससे पैदा हुई संतान को ही वैधानिकता प्रदान की गयी है.गर्भपात कराना अवैध ही नहीं अपराध है। संतान उत्पत्ति के नैसर्गिक नियमो में किसी भी रूकावट को मान्यता नहीं है। कई सम्प्रदायों में नियोग पद्धति द्वारा संतानोत्पत्ति अनुमत है लेकिन यह पुरुषों की नपुंसकता का हल है। स्त्री की प्रजनन क्षमता क्षीण होने पर दूसरी स्त्री से विवाह होता था लेकिन अब यह अवैध है। हिन्दू विवाह अधिनियम के द्विविवाह पर रोक लगाने जाने वाले प्रावधान को उच्चतम न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि प्रत्येक हिन्दू की कपाल क्रिया करने के लिए पुत्र आवश्यक है तथा उसे पुत्र प्राप्ति के लिए दूसरा विवाह करने की अनुमति होनी चाहिए जो उसका धार्मिक अधिकार है , माना नहीं गया था। न्यायालय का कहना था कि यदि किसी हिन्दू के पुत्र नहीं हो रहा है तो वह दत्तक ग्रहण कर सकता है लेकिन दूसरा विवाह अवैध होगा।
दरअसल सरोगेसी तकनीक की मांग में इसलिए भी बाढ़ आई है कि अब अक्षम दम्पति ही नहीं बल्कि एकल पुरुष तथा स्त्रियां , समलैंगिक जोड़े तथा लिव -इन रिश्तों में रहने वाले युगल गर्भाधान के पचड़े में पड़े बिना संतानोत्पत्ति चाहते हैं क्योंकि मेडिकल साइंस तथा जेनेटिक इंजीनियरिंग ने इसे संभव बना दिया है। विधि की दृष्टि से लिव -इन रिलेशनशिप तथा एकल पुरुष-स्त्री द्वारा संतानोत्पत्ति अवैध नहीं है। कई देशों में लिव -इन रिश्तों को विवाह के समकक्ष मान्यता मिली हुई है। हर स्त्री को अपने शरीर पर पूरा अधिकार है तथा गर्भधारण/ गर्भपात उसकी अपनी मर्ज़ी है जिस पर कानून रोक नहीं लगा सकता। हाँ , शरीर के व्यवसायिक उपयोग को रोक जा सकता है क्योंकि यह प्रचलित मान्यताओं तथा नैतिकता के विरुद्ध है। वैश्यावृत्ति पर लगी रोक इसी कारण वैध है। कहा जा रहा है कि सरोगेसी भी प्रच्छन्न वैश्यावृत्ति है क्योंकि कोख को किराये पर देना उसी का एक प्रकार है। स्त्री स्वातंत्र्य के पुरोधा इसका पुरज़ोर विरोध करते हैं। उनका कहना है कि यदि पुरुष अपना शुक्राणु बेच सकता है तो स्त्री अपनी कोख क्यों नहीं दे सकती? ' विकी डोनर 'फिल्म की कथा वस्तु इसीसे मिलती जुलती है।
प्रस्तावित कानून के बनने से पहिले ही उसकी आलोचना प्रारम्भ हो गयी है। विदेशी युगलों को अनुमति न देने का तो समर्थन हो रहा है लेकिन अन्यों का नहीं। कई देशों में इस पर पूर्णतः प्रतिबन्ध है। लेकिन एकल स्त्री पुरुषों तथा लिव -इन रिश्तों को कानूनी मान्यता प्राप्त है। यह अभी तक गोद लेकर अपनी इच्छा पूरी करते हैं। जो दम्पति सक्षम हैं वे भी इसके द्वारा संतान चाहते हैं। बॉलीवुड के एक पॉपुलर स्टार ने भी इसी प्रकार एक संतान प्राप्त की बताया जा रहा है,जबकि उनके अपने पुत्र-पुत्री हैं. थोड़े दिन पहले एक अनब्याही महिला ने उच्चतम न्यायालय में गुहार लगाईं थी कि उसके शिशु को अपनी माँ के नाम के साथ पासपोर्ट जारी किया जाए तथा अधिकारियों को आदेश दिया जाए कि वे शिशु के पिता के नाम बताने पर जोर न दें। न्यायालय ने इसकी अनुमति भी दे दी। ऐसे एकल स्त्री पुरुषों की संख्या बहुतायत में है जो विवाह बंधन में बंधे बिना संतान चाहतें हैं। समलैंगिकों की भी पर्याप्त संख्या है जो सरोगेसी के माध्यम से संतानोत्पत्ति चाहते हैं। चूँकि इस पद्धति में बीज / स्पर्म अपना होता है अतः ऐसे बच्चे में अपने पन का भाव अधिक रहता है। यही नहीं , समय दूर नहीं है जब मानव-क्लोन बनना वास्तविकता हो जाएगी। इसमें भी सरोगेसी तकनीक का सहारा लेना मजबूरी होगी।
भारतीय संविधान में यों तो स्त्रियों को बराबरी का हक़ दिया गया है तथा कुछ स्थितियों में अतिरिक्त रक्षोपाय भी हैं , लेकिन परिवार तथा विवाह संस्था को बचाये रखने के लिए दम्पतियों पर बंदिशें भी हैं। नरगिस मिर्ज़ा के केस में यह निर्धारित किया जा चुका है क़ि हर स्त्री को माँ बनने का नैसर्गिक अधिकार है लेकिन यह स्वयं के सुख के लिए होना चाहिए तथा स्वीकार्य मापदण्डों के अन्तर्गत होना चाहिए. सरोगेसीपर चल रही बहस में नीति , नैतिकता तथा मर्यादा के प्रश्नों के साथ स्त्री स्वातंत्र्य अधिकारों के मध्य सामंजस्य की मांग की जा रही है।
सरोगसी कानून को लेकर अभी यही प्रश्न तैर रहे हैं। उस शिशु के अधिकारों पर चर्चा नहीं हो रही है जो इस माध्यम से जन्म ले रहा है। वयस्क होने पर क्या उसे कपनी जननी माँ को भरण- पोषण देने के लिए बाध्य किया जा सकेगा या घरेलू हिंसा अधिनियम के अन्तर्गत दाई ठहराया जा सकेगा, यदि उसके जैविक माता-पिता की मृत्यु हो जाए ? क्या जैविक माता-पिता अनुबंध करके उस सरोगेट को अपनी संपत्ति में हिस्सा देकर बच्चे के अधिकारों पर कुठारा घात कर सकतें हैं?यदि स्त्री बीज(ओवम) के साथ-साथ पुरुष शुक्राणु भी एक से अधिक लोगों के लिए जाएँ तो स्थिति और भी जटिल तथा दुरूह हो जाएगी।शिशु की पहचान के संकट के साथ प्रचलित मान्यतायों तथा विधिक प्रावधानों की पुनर्व्याख्या करनी होगी। नागरिकता तथा राष्ट्रीयता के प्रश्न भी महत्वपूर्ण हैं।
भारत में सरोगेसी इंडस्ट्री अपने शबाब पर है। इन्टरनेट पर खुलेआम ऐसी स्त्रियों के फोटो तथा अन्य जानकारी उपलब्ध है जो अपनी कोख को किराये पर देने के लिए तैयार हैं। शुक्राणु देने वालों के बारे में भी जानकारी उपलब्ध है। गोपनीयता की भी गारन्टी दी जा रही है। आई ० वी ० ऍफ़ ० तकनीक को विस्तार से समझाया जाता है तथा जोखिम भी बतलाई जाती है। इन सबका खुलेआम विज्ञापन किया जा रहा है। आशंका व्यक्त की जा रही है की यदि इस पर कानूनी रोक लगाई गयी तो इसमें भी अवैध धंधा फलने फूलने लगेगा। मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम में सिर्फ नजदीकी रिश्तेदारों/मित्रों के अंग लेने का प्राविधान है तथा इसके व्यवसायिक उपयोग पर रोक है लेकिन इसमें काला बाजार फल-फूल रहा है और कई नामी-गरामी अस्पताल भी इसमें लिप्त बताये जा रहे हैं। यह एक यक्ष प्रश्न है क़ि क्या कोई भाभी,बहन या साली अपने देवर/जेठ ,भाई या जीजा के लिए अपना गर्भ उधार देने के लिए राज़ी हो जाएगी ? थोड़े दिन पूर्व बरेली से समाचार मिला था कि दो बहिनों में एक प्रजनन के लायक नहीं थी तथा दूसरी बहन आई वी ऍफ़ से जीजा के शुक्राणु से डिम्ब को निषेचित कर अपने गर्भ से संतान पैदा करने को राजी थी, लेकिन पत्नी राजी नहीं हुई। गनीमत थी कि बहनों की माँ सक्षम थी और उसीने अपने दामाद की संतान को जन्म दिया।
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