Wednesday 10 October 2007

राजसुख बरास्ते दैवी कृत्य

[यदि किसी व्यक्ति के चरित्र का परीक्षण करना हो तो उसे शक्ति दे दें। शक्ति होने के बावजूद फिसलन तथा स्खलन न हो, तभीवह चरित्रवान तथा शक्तिवान है। -अब्राहिम लिंकन] भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा कतिपय उच्च न्यायालयों के जजों तथा मुखिया जजों के अभी हाल में किये गये तबादलों पर उठे यक्ष प्रश्नों का जबाब मिलना शेष था कि कलकत्ता उच्चन्यायालय के अवकाश प्राप्त जस्टिस बी.पी.मुखर्जी द्वारा कार्यकाल के दौरान सांसारिक सुखों की खातिर न्यायिक तथा दैवी दायित्वों के साथ समझौते के समाचार ने सनसनी ही नहीं फ़ैलायी वरन न्यायपालिका के प्रति आम लोगों की आस्था को ही चटका दिया। वर्तमान राजनैतिक स्थिति में न्यायपालिका के प्रति थोड़ी बहुत श्रद्धा और सम्मान बचा है लेकिन ऐसे समाचार से जनतंत्र और विधि शासन के प्रति प्रतिबद्धता का आइना दरक कर किरच-किरच होता दिख रहा है। उच्चतम न्यायालय के एक नवीनतम निर्णय में इस बात का खुलासा हुआ कि उक्त जज ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोटे से आवंटित जमीन पर अपने रहने के लिये आलीशान भवन बनवाया है। कहा जाता है कि उक्त जज ने प्राइम लोकेशन की यह भूमि औने-पौने दाम पर तब प्राप्त की थी जब वे जज की हैसियत से मुख्यमंत्री के कोटे से अवैध, असंवैधानिक,स्वैच्छाचारी, द्वेषपूर्ण, मनमाने तथा पक्षपात पूर्ण भूमि आवंटन के खिलाफ़ एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रहे थे। उच्चतम न्यायालय ने यह आवंटन अवैध घोषित कर आदेश दिया है कि इस भवन की नीलामी कर दी जाये । सम्बंधित जज से यह अपेक्षा की है कि वह नीलामी हो जाने के एक सप्ताह के भीतर मकान खाली कर दे। देखना यह है कि इस नीलामी में कितने लोग बोली लगाने का साहस जुटा पाते हैं। जस्टिस एस.एन.वरियावा एवं एच.के.सेमा की एक खण्डपीठ ने अपने हाल के इस निर्णय में संप्रेक्षित किया है कि न्यायाधीश के लिये कुछ पाने की इच्छा रखने में कोई नुकसान नहीं है लेकिन सांसारिक जगत की इच्छायें उसे भीरु तथा कायर बना देती हैं। खण्डपीठ ने अपने निर्णय में अभिनिर्धारित किया है कि आरोपी जज ने सस्ती दर पर सरकारी जमीन पाने के लिये अपने दैवी कृत्य अर्थात न्यायिक दायित्व तथा मर्यादा के साथ समझौता किया। उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले तथा टिप्पणी पर अपनी क्षोभ तथा रोषपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये जस्टिस बनर्जी ने कहा कि इससे उनकी इज्जत पर ऐसा धब्बा लगा है कि वे किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे हैं। उनके बचाव में उतरे श्री सोमनाथ चटर्जी ने एक वकील की हैसियत से बोलते हुये कहा है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बसु का जस्टिस बनर्जी से कोई परिचय नहीं था तथा आवंटन सामान्य प्रकिया का अंग था। उन्होंने पुनर्विलोकन याचिका दाखिल करने की भी बात कही है। न्यायाधीशों को सरकारी सुख-सुविधाऒं तथा लाभ लेना कोई नयी बात नहीं है। अभी अधिक दिन नहीं बीते जब रक्षा सौदों से जुड़े 'तलहका' कांड की जांच कर रहे जस्टिस के वेंकटस्वामी को सीमा शुल्क पर अग्रिम निर्देश प्राधिकरण के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति हुई थी। नियुक्ति के प्रकाश में आने के बाद उनको दोनों पदों से इस्तीफ़ा देने को मजबूर होना पड़ा था। तत्समय विपक्षी सदस्यों का कहना था कि 'तहलका' जांच प्रभावित करने की नियत से न्यायमूर्ति को सरकारी लाभ का झुनझुना पकड़ाया गया है। जस्टिस वेंकटस्वामी के त्यागपत्र से न्यायपालिका की शुचिता, पवित्रता, स्वाधीनता तथा निष्पक्षता पर कई सवाल एक साथ उठ खड़े हुये थे। इनका कोई सर्वमान्य हल खोजा जाता इससे पूर्व दैवी कृत्य तथा राज्य सत्ता के द्वन्द में राज्यसत्ता की निर्णायक खिलखिलाहट फिर सुनाई दी है। विगत वर्षों में न्यायाधीशों के विरुद्ध ऐसे आरोपों की बाढ़ आ गयी है। उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश जस्टिस रामास्वामी के विरुद्ध भारत सरकार के महालेखाकार ने विपरीत टिप्पणी की थी। उनके खिलाफ़ आरोप था कि उन्होंने सरकारी फ़र्नीचर अपने घर भिजवा दिया, लाखों रुपये की व्यक्तिगत एस.टी.डी. कालें सरकारी फोन के जरिये की तथा तमिलनाडु स्थित अपने परिवार से बार-बार मिलने के लिये हवाई यात्रा का टी.ए./डी.ए. सरकारी खजाने से लिया। सरकारे सुविधाऒं का व्यक्तिगत कार्यों के लिये इस्तेमाल करने आदि के लिये उन पर महाभियोग चलाया गया था लेकिन वह असफ़ल रहा। अभी हाल में पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के तीन जजों के विरुद्ध अपने पाल्यों को पंजाब लोक सेवा आयोग द्वारा अनुचित साधन अपना कर नियुक्ति दिलाने के आरोप की अनुगूंज होती रही। यह वे प्रकरण हैं जो प्रकाश में आ गये लेकिन यह वह बर्फ़ है जो पानी के ऊपर दिखलाई पड़ रही है। न्यायिक कदाचार के किस्से और भी हैं । न्यायालय की अवमानना के डर से सिर्फ़ वही प्रकरण जाहिर हो पाते हैं जिनको सिद्ध करने के पुख्ता प्रमाण होते हैं। प्रतिनिधि लोकतंत्र में न्यायपालिका का विशिष्ट महत्व होता है क्योंकि वहां नागरिकों के अधिकारों तथा हितों का विनिश्चय होता है और इस बात की आवश्यकता होती है कि कार्यपालिका या विधायिका के हस्तक्षेप से उनकी रक्षा की जाय। इसी हेतुसंविधान द्वारा न्यायपालिका को सरकार के दो अन्य अंगों से स्वाधीन और सर्वोच्च बना दिया गया है। संघात्मक राज व्यवस्था, मूल अधिकारों को सुनिश्चित करने तथा लोकतंत्र की सुरक्षा के लिये भी स्वतंत्र, निर्भीक तथा निष्पक्ष न्यायपालिका एक अनिवार्य अपेक्षा है। केवल एक स्वाधीन व स्वावलंबी न्यायपालिका ही नागरिकों तथा संविधान के अधिकारों के अभिभावक के रूप में प्रभावशाली ढंग से कार्य कर सकती है। इसी स्वाधीनता, स्वतंत्रता और स्वायत्तता को सुनिश्चित करने के लिये भारत के संविधान में न्यायधीशों की नियुक्ति, उन्हें हटाये जाने तथा उनके कार्यकाल की सुरक्षा आदि के बारे में प्रावधान किये गये हैं। राज्य के नीतिनिर्देशक तत्वों के अनुच्छेद 50 में राज्य से यह अपेक्षा की गयी है कि वह कार्यपालिका से न्यायपालिका को पृथक करने के लिये कदम उठायेगा। इन प्रावधानों का निर्वचन करते हुये न्यायपालिका ने धीरे-धीरे स्वायत्तता हासिल कर ली है। अनुच्छेद 124 में न्यायाधीशों की नियुक्ति से पूर्व राष्ट्रपति से यह अपेक्षित है कि वह भारत के मुख्य न्यायाधीश से 'परामर्श' करे। उच्चतम न्यायालय का पूर्व में मत था कि 'परामर्श' का अर्थ सहमति नहीं है। लेकिन बाद में यह अभिनिर्धारित किया कि किसी भी न्यायाधीश की नियुक्ति में उसकी राय सर्वोपरि होगी। नियुक्ति में परामर्श देने से पूर्व मुख्य न्यायाधीश अपने अधीनस्थ चार वरिष्ठ न्यायाधीशों से सहायता लेंगे। सांविधानिक स्थिति यह हो गयी है कि जजों की नियुक्ति, प्रतिस्थापन तथा स्थानांतरण में कार्यपालिका का दखल नाम मात्र का रह गया है और न्यायपालिका ने सारी शक्ति स्वयं में केंद्रित कर ली है। न्यायपालिका ने अपने को कार्यपालिका के प्रभाव से मुक्त तो कर लिया है लेकिन राजकीय सुख और सांसारिक मायामोह से अपने को नहीं बचा पायी। कोठी,टेलीफोन,शोफ़र वाली झंडा लगी कार तथा कलगी लगाये दरबान का सामंती मोह यदि अपने 'दैवी कृत्य' से समझौता करने को उकसाता है तो कुछ विशेष नहीं। न्यायाधीश के पद से अवकाश लेने के बाद कुछ भाग्यशाली लोग उपराष्ट्रपति तथा सांसद-विधायक बन गये। कइयों ने राष्ट्रपति पद पर चुने जाने की महात्वाकांक्षा का इजहार खुले आम किया लेकिन सफ़ल नहीं हो पाये। अधिवर्षिता के पश्चात सरकारी नियुक्तियां हथियाने की होड़ लगी हुयी है। एक आम नागरिक यह सोचने को विवश है कि न्याय की देवी की आंखों में बंधी पट्टी से भी कुछ देखा जा रहा है। सन 1973 में हुये तीन न्यायाधीशों के अतिलंघन तथा अपेक्षाकृत कनिष्ठ न्यायाधीश को भारत के मुख्यन्यायाधीश पद पर नियुक्त करने को लेकर खासा विवाद हुआ था। अपने कृत्य को न्यायोचित ठहराते हुये तत्कालीन न्यायाधीशों ने कहा कि इससे 'प्रगतिशील तथा दूरन्देशी'व्यक्ति को नियुक्ति के द्वार खुलेंगे। इस पर शंका जाहिर करते हुये प्रख्यात न्यायविद नानी पालकीवाला ने कहा था कि इससे "दूर की देखने वाला" नहीं बल्कि "अपने आगे का देखने वाला" बाजी मार ले जायेगा। आज वह डर सच में बदल गया है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राज्यों में स्थापित मानवाधिका आयोग ,पिछड़ी जातियों के लिये बने राष्ट्रीय आयोग,एकाधिकार एवं अवरोधक व्यापारिक व्यवहार आयोग,राष्ट्रीय उपभोक्ता संरक्षण आयोग, लोकपाल आयोग, लोकपाल, लोकायुक्त, केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण, प्रेस आयोग, विधि आयोग,प्रतिलिप्पधिकार आयोग, आदि तमाम आयोगों में अध्यक्ष/सदस्य हेतु उच्चतम/उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होना या योग्यता रखना आवश्यक अहर्ता निर्धरित है। इनके कार्यकाल की आयु भी इस प्रकार से निर्धारित की गयी है कि रिटायरमेंट के बाद कम से कम पांच वर्ष 'सेवा' का अवसर मिल जाय। इनके अतिरिक्त विभिन्न जांच आयोगों, नियामक आयोगों, समितियों आदि में इनकी नियुक्तियां की जाती हैं। विभिन्न अधिनियमों में इन नियुक्तियों से पूर्व भारत के मुख्य न्यायाधीश या राज्य उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से 'परामर्श' का प्रावधान है। किन आधारों पर यह परामर्श किया जाता है यह अवधारित नहीं है। जहां तक न्यायव्यवस्था से संबंधित पद हैं वहां तो मुख्य न्यायाधीश सलाह देने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन व्यवस्थापिका में लाभ वाले पदों हेतु उपयुक्तता कैसे निर्धारित होगी? स्वाभाविक है कि इन न्यायाधीशों की रुचि ऐसी नियुक्तियां हस्तगत करने में रहेगी जिससे रुतबा और रुआब कायम रहे। एक सामान्य ज्ञान-विवेक व प्रज्ञा का व्यक्ति यदि अपने तथा अपने बच्चों के भविष्य तथा सांसारिक व्यामोह में बंधकर अपनी आत्मा की आवाज की अनसुनी कर कुछ समझौता परक व्यवहार करे तो उसमें अचरज क्या है? न्यायाधीशों की सेवा शर्तें पहले से ही काफ़ी आकर्षक हैं। उनकी उन्मुक्तियां तथा विशेषाधिकार भी कम नहीं हैं। लेकिन वरिष्ट नौकरशाहों,सांसदों तथा विधायकों आदि से जुड़ा वैभव, प्रभामंडल तथा चकाचौंध इनमें शायद हीनग्रंथि सृजित करता है।स्वतंत्रता की अर्ध शताब्दी के बीत जाने के बाद भी दरिद्र नारायणों के प्रति हम सहानुभूति और दायित्व-निर्वहन में सुखानुभूति नहीं प्राप्त कर सके। पद की गरिमा,न्यायनीति की शुचिता तथा कठोर स्व-अनुशासन अभी दिवास्वप्न ही है। जस्टिस बनर्जी के फ़ैसले में अब्राहम लिंकन का यह कथन उद्धत किया गया है जिसमें उन्होंने कहा था कि लगभग प्रत्येक व्यक्ति विषम परिस्थितियों में भी खड़ा रह सकता है लेकिन यदि किसी व्यक्ति के चरित्र का परीक्षण करना हो तो उसे शक्ति दे दें। शक्ति होने के बावजूद फिसलन तथा स्खलन न हो, तभीवह चरित्रवान तथा शक्तिवान है। न्यायपालिका को भी अंतर्मंथन कर सोचना होगा कि जितनी शक्ति उसने ले ली है,क्या वह उसके भार से आक्रांत हो गयी है तथा उसके पग इसी कारण तो डावांडोल नहीं हो रहे हैं? शक्ति के संतुलन और सामंजस्य के लिये उसे अंदर से नैतिक रूप से बलिष्ठ होना अनिवार्य है। इसको पाने तथा बनाये रखने के लिये कानून में प्रावधान नहीं बल्कि सर्वशक्तिमान की अनुकम्पा की आवश्यकता होती है और वह उन्हीं को मिलती है जो स्वयं को भूलकर निर्मल और स्वच्छ हृदय से इंसानियत से प्रेम करते हैं।

सत्याग्रह की धुंधलाती लक्ष्मण रेखा

सरकार पर सेतु समुद्रम परियोजना पर कार्य करने के लिये दबाब बनाने के इरादे से द्रुमुक द्वारा पहलीअक्टूबर को तमिलनाडु 'बंद' करने के आह्वान पर उच्चतम न्यायालय द्वारा कड़ा रुख अपनाने पर मुख्यमंत्री श्री करुणानिधि अपना उपवास तोड़ने को विवश तो हुये लेकिन हड़ताल , बन्द तथा सत्याग्रह को लेकर बहस पुनर्जीवित हो गयी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवेहेलना करते हुये एक मंत्री ने न्यायालय तथा न्यायाधीशों पर तल्ख टिप्पणी की तथा कहा कि न्यायालय से गलतियां होती हैं तथा न्यायमूर्तियों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं। मुख्यमंत्री का बचाव करते हुये एक केंद्रीय मंत्री ने उनके उपवास को सत्याग्रह की संज्ञा दी तथा स्वतंत्रता संग्राम में इस्तेमाल किये गये इस हथियार कोभारतीय परिप्रेक्ष्य में आज भी प्रासंगिक और अपेक्षित करार दिया। ज्ञातव्य है कि अन्नाद्रुमुक ने उक्त राज्यव्यापी बंद के विरुद्ध एक याचिका उच्चतम न्यायालय में दायर की थी। स्थिति की गंभीरता का संज्ञान लेते हुये न्यायालय के दो जजों की एक पीठ ने रविवार को विशेष बैठक कर बंद को असंवैधानिक करार दिया तथा राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह सुनिश्चित करे कि राज्य में बाजार ,स्कूल तथा सार्वजनिक प्रतिष्ठान खुले रहें तथा परिवहन आदि सेवायें संचालित होती रहें। अदालती आदेश की परवाह न करते हुये बंद की आधिकारिक घोषणा को निरस्त करने के बजाय श्री करुणानिधि ने स्वयं चौबीस घंटे काउपवास रखने का निर्णयलिया। पहली अक्टूबर को जब न्यायालय के संज्ञान में तथ्य लाये गये तो न्यायमूर्तियों का रोष में आना स्वाभाविकथा। अतिरेक में एक न्यायमूर्ति ने राज्य के सरकारी वकील से यह तक कह डाला कि यदि आदेशों का पालन नहीं हुआ तो राष्ट्रपति को यह अनुशंसा की जा सकती है कि तमिलनाडु में संवैधानिक तंत्र विफ़ल हो गया है तथा अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्य सरकार को बर्खास्त करने के पर्याप्त आधार हैं। हालांकि इस मौखिक टिप्पणी की वैधानिक बाध्यता नहीं मानी जाती है लेकिन इसके अपेक्षित परिणाम निकले तथा श्री करुणानिधि ने अपना उपवास बीच में ही तोड़ दिया। राजनीतिक दलों द्वारा आये दिन बन्द का आह्वान करना एक आम बात हो गयी है । अपने राजनीतिक स्वार्थ के निहितार्थ जनजीवन को बन्द के माध्यम से ठप करना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। उनका मानना है कि बंद का आह्वान संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं संघ बनाने तथा सम्मेलन करने की स्वतंत्रताका अंग है। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया बनाम भरत कुमार (1998) के वाद में इस तर्क को खारिज किया हुआ है। न्यायालय ने इसे असंवैधनिक बताते हुये निर्णीत किया है कि यह अधिकार आत्यंतिक न होकर अनुच्छेद 19(2) तथा (3) के अंतर्गत मर्यादित है। न्यायालय का कहना है कि बंद के दौरान जनसाधारण की अनेक स्वतंत्रतायें समाप्त हो जाती हैं। नागरिक घर के बाहर नही निकल सकते, अपना व्यापार नहीं कर सकते, स्वछंद विचरण नहीं कर सकते, अपना आवश्यक दैनिक कार्य नहीं कर सकते यहां तक कि वे चिकित्सा के लिये अस्पताल तक नहीं जा सकते। और तो और बन्द के दिनों में दूध तथा अखबार जैसी चीजें भी अवरुद्ध हो जाती हैं। सड़कों पर गाड़ियां नहीं चल सकतीं , रेल तथा हवाई जहाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। न्यायालय ने कहा कि ऐसे अधिकार को संवैधानिक नहीं कहा जा सकता। राजनैतिक स्वार्थ पूर्ति के लिये जन-साधारण के अधिकारों की बलि नहीं दी जा सकती। कामेश्वर सिंह बनाम स्टेट आप बिहार(1961) में प्रदर्शन तथा धरनों को विचारों की अभिव्यक्ति एक मानागया है, बशर्ते वे हिंसात्मक और उद्दन्ड न हों। चूंकि इससे विचारों का दृश्यमान निरूपण होता है , अत: ये अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत वाक एवं अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकारों के अंतर्गत सुरक्षित हैं। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं लिया जाना चाहिये कि वे मनमाने ढंग से इस अधिकार का इस्तेमाल करें। बार कौंसिल आफ इंडिया द्वारा प्रत्यायोजित वकीलों, आल इंडिया आफ मेडिकल सांइस के डाक्टरों तथा राज्य सरकार के कर्मचारियों द्वारा की जाने वाली हड़तालों को असंवैधानिक करार दिया गया है। कुछ वर्ष पहले जयललिता सरकार ने अपने राज्य के लाखों कर्मचारियों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया था। उन पर आरोप था कि उन्होंने एक अवैध हड़ताल में हिस्सा लिया था। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के कदम को उचित ठहराया था लेकिन मानवीय आधार उन कर्मचारियों वापस लेने का अनुरोध किया था जिनके विरुद्ध हिंसा का चार्ज नहीं था तथा जो अपने कृत्य पर पछतावा करने का लिखित माफ़ीनामा देने को तैयार थे। पिछले कई वर्षों से राज्य सरकारों द्वारा प्रत्यायोजित बंदों का प्रचलन शुरू हुआ है। केरल व पश्चिम बंगाल से प्रारम्भ होकर उत्तर-प्रदेश, बिहार, उत्तर-पूर्वी राज्यों तथा अब तमिलनाडु तक फ़ैलते जा रहे इस रोग पर लगाम लगाने के लिये सुप्रीम कोर्ट की सराहना हुई है।बन्द का विरोध करने वालों की खुले आम धुनाई , बेइज्जती तथा सामान लूटने की घटनाओं से लोग डरे रहते हैं तथा घर में ही बंद रहना सुरक्षित समझते हैं। इससे अर्थव्यवस्था पर तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ता ही है, रोगियों , वादकारियों तथा नौकरी के लिये जा रहे लोगों को मन मसोसना पड़ता है। इन बंदों के दौरान हिंसा का बोलबाला रहता है तथा जनसामान्य न चाहते हुये भी इसका विरोध करने का साहस नहीं उठा पाता। गांधीजी का सत्याग्रह भिन्न परिस्थितियों में एक विदेशी शासन के विरुद्ध होता था। वे अपने ध्येय की पवित्रता को सिद्ध करने के लिये आत्मपरिष्कार हेतु उपवास रखते थे। उनके इस हथियार के सामने शक्तिशाली भी नतमस्तक होता था। स्वतंत्र भारत में अब वह स्थिति नहीं है। राज्य में शासनारूढ़ तथा केंन्द्र सरकार का एक प्रमुख घटक होने के बावजूद यदि कोई दल अपनी बातें मनवाने के लिये संविधानेत्तर उपायों का सहारा लेता है तो उसकी राजनैतिक शुचिता और ईमानदारी पर उंगली उठना स्वाभाविक है। ऐसे दुराग्रह पर जनचेतना विकसित करने का समय है क्योंकि गांधी के सत्याग्रह के मर्म को सही परिप्रेक्ष्य में लागू करके ही भारतीय जनमानस के हृदय में स्थान पाया जा सकता है।

Sunday 30 September 2007

कबीलाई अन्दाज़ और बर्बर इंसाफ़

बिहार के भागलपुर में चेन खींचने वाले एक कथित चोर को बुरी तरह मारने-पीटने तथा पुलिस वालों द्वारा मोटर साइकिल में बांधकर उसे कच्ची सड़क पर दूर तक घसीटने की लोमहर्षक घटना की तस्वीरें अभी भूलीं भी नहीं थीं कि वैशाली जिले के दिलपुरवा गांव में दिल दहला देने वाली एक और घटना में दस लोगों को पीट-पीटकर मार डाला गया। इन लोगों पर चोरी करने का शक था। बताया गया है कि इस गांव में पिछले कुछ दिनों से चोरियां बढ़ गयीं थीं। पुलिस से शिकायत करने से भी कुछ हासिल नहीं हुआ इसलिये गांव के लोगों ने रतजगा कर स्वयं पहरेदारी की पहल की। घटना वाले दिन भोर पहर दस-बारह लोग संदिग्ध अवस्थी में देखे गये जो ललकारने पर इधर-उधर छिपने लगे। आनन-फ़ानन में एकत्र हुई भीड़ ने उनको इतना पीटा कि उनमें से दस लोगों की मौके पर ही मौत हो गई। पुलिस ने तीन सौ अज्ञात लोगों के खिलाफ़ मुकदमा दर्ज करने की कवायद तो की लेकिन इनकी लाशों को नदी में फ़िकवा दिया। और इतने मात्र से ही शायद तस्वीर पूरी नहीं हो रही थी कि सीतामढ़ी जिले में मूर्तिचोरी के आरोप में राकेश नामक एक व्यक्ति को पीट-पीट कर मार डाला गया। इस व्यक्ति को किसी ने चोरी करते नहीं पकड़ा था बल्कि एक तांत्रिक ओझा ने अपनी 'चमत्कारी' शक्ति से बताया था कि चोर का नाम राजेश है। इस नाम का कोई व्यक्ति नहीं मिला लेकिन राकीश कुमार हत्थे आ गया। बस उसी को चोर मान कर मार डाला गया। पुलिस जब हत्यारों को पकड़ने गयी तो उसे गांव वालों के विरोध का सामना करना पड़ा। कानून हाथ में लेने तथा दोषियों के साथ कबीलाई अंदाज में इंसाफ़ करने का बिहार में अपना इतिहास है तथा अक्सर ऐसी दास्तानें देखने सुनने को मिलती रहती हैं। अस्सी के दसक में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गयी थी जिसमें भागलपुर इलाके में चोरी के इल्जाम में बंद अपराधियों की आंख में तेजाब डाल कर सूजे से फोड़ने का सनसनीखेज आरोप लगाया गया था जो जांच के बाद सही मिला था। रोंगटे खड़े कर देने वाली इस सुप्रीम कोर्ट की फ़टकार के बाद कुछ पुलिस वालों पर कार्यवाही हुयी तथा मुवावजा वगैरह दिया गया लेकिन बर्बरता के किस्से बदस्तूर जारी रहे। पंजाब में भी जेब काटने के जुर्म में पकड़ी गयी औरतों के माथे पर "मै जेबकतरी हूं" गुदवा दिया गया था। इसमें पुलिस भी शरीक पायी गयी थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आल इंडिया मेडिकल साइंस संस्थान में प्लास्टिक सर्जरी करके इनके माथे का कलंक हटाया गया। लेकिन त्वचा पर निशान नहीं मिटे। छोटी-मोटी चोरी, जेबकटी, जुआं खेलने, लड़कियों को छेड़ने, बालकों से समलैंगिक संबंध बनाने आदि के आरोपों में रंगे हाथ पकड़े गये लोगों के सिर मुड़वाकर तथा गधे पर बैठाकर गांव-गली का चक्कर लगवाने के किस्से अखबारों की सुर्खियां बनते हैं। वैलेन्टाइन दिवस आदि के अवसरों पर नैतिक-पुलिस करते हुये कुछ संगठन ऐसे युगलों को मुर्गा बनाने तथा कान पक़ड़कर उठा-बैठक कराने की कवायद करते हैं। कई बार इनकी आडियो-वीडियो क्लिपिंग टीवी पर देखने को मिलती हैं। यहां तक तो फिर भी गनीमत है। इधर हाल के वर्षों में जातीय पंचायतों द्वारा प्रेमी-जोड़ों को जान से मारने के फ़रमान निकले हैंतथा उन पर अमल हुआ है। इनका दुखद तथा आश्चर्य करने वाला पहलू यह भी है कि अक्सर पुलिस तथा सुरक्षा एजेन्सियां सूचित होने के बावजूद मूक दर्शक बनी रहती हैं। भारतीय दंड संहिता में विभिन्न अपराध परिभाषित किये गये हैं। इसी में उनके लिये सजा भी निर्धारित की गयी है। अपराधी को सजा देने के लिये तंत्र विकसित किया गया है तथा इस हेतु मार्गदर्शक सिद्धान्त है कि अपराधी के दुराशय पूर्ण कृत्य को सन्देह से परे सिद्ध किया जाना चाहिये। यह भी कहा जाता है कि किसी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिये तथा जब तक अंतिम तथा निश्चित तौर पर सिद्ध न हो जाये तब तक किसी को अपराधी नहीं कहना चाहिये। आपराधिक विधि के यह सिद्धान्त इस लिये कड़ाई से पालन किये जाते हैं क्योंकि अपराध को व्यक्ति विशेष के विरुद्ध नहीं बल्कि सारे समाज के विरुद्ध माना और लिया जाता है। किसी व्यक्ति पर अपराधी का लेबल लगने से न केवल उसका मान-सम्मान समाप्त होता है बल्कि उसकी पीढि़यां भी इस दंश से बच नहीं पाती हैं। अपराधी को पकड़कर कानून के हवाले करने का दायित्व प्रत्येक नागरिक का है। ऐसा करते हुये यदि हिंसा होती है तो वह भी क्षम्य है लेकिन कानून की परवाह न करते हुये तथा सिर्फ़ शक की बिना पर किसी को दण्ड देना या मार डालना अपने आप में एक जघन्य आपराधिक कृत्य है तथा ऐसे लोग जान-बूझकर की गयी हत्या के दोषी हैं। अपनी जान-माल की रक्षा करने का हक सभी को है तथा इसके लिये आवश्यक बल प्रयोग की भी छूट है लेकिन इन सब की मर्यादा और सीमायें हैं। कानून व्यवस्था बनाये रहना पुलिस प्रशासन का महती दायित्व है। इसमें जब ढील आती है तो लोग कानून अपने हाथ में लेने को विवश होते हैं तथा वैज्ञानिक और तार्किक ढंग से काम करने की बजाय भीड़ तंत्र की भावना में बहने लगते हैं। मानव जीवन तथा मूल्य गौण हो जाते हैं तथा बहशियाना ढंग से पेश आने के कारण अपराधी को सजा देते-देते खुद अपराधी बन जाते हैं। कानून व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों के लिये ऐसी घटनायें समय रहते जाग जाने की चेतावनी हैं ,नहीं तो कानून के बजाय जंगल राज अब बहुत दूर नहीं है।