Sunday 18 March 2018

सरकारी नौकरी हेतु अनिवार्य सैन्य सेवा की विधिमान्यता


रक्षामंत्रालय से सम्बंधित संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की हैकि ऐसे लोग जो सरकारी नौकरी पाना चाहते हैं, उनके लिए पांच साल की सैन्य सेवा अनिवार्य की जाये. समिति की अनुशंसा है कि केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा नयी भर्ती में यह नियम लागू किया जाये. समिति ने थल,जल तथा वायु सेना में योग्य अधिकारियों तथा कर्मकारों की भरी कमी पर चिंता व्यक्त करते हुए आशा व्यक्त की है कि ऐसा करने पर न केवल सेना में मानव संसाधन की संख्या बढ़ेगी वरन सिविल सेवाओं में देश प्रेम , अनुशासन  तथा समर्पण का भाव जाग्रत होगा तथा प्रशासनिक अधिकारी बिना किसी डर या दबाव के काम करने को उद्द्यत होंगे. सेना  की दुर्गम सेवाओं का एहसास होगा तथा सैनकों के प्रति श्रद्धा बढ़ेगी. अभी तक सिविल सेवाओं के लिए ऐसी कोई शर्त तो नहीं है लेकिन शार्ट सर्विस कमीशन पाए तथा भूतपूर्व सैनिकों/पाल्यों के लिए एक सीमित प्रतिशत तक स्थान आरक्षित हैं.


मक्सिको समेत कई देशों में 18 से 26 वर्ष की आयु के पुरुषों/महिलाओं को अनिवार्य सैन्य सेवा देनी होती है.अन्यान्य देशों में इनको पंजीकरण कराना होता है,20 दिन से लेकर तीन वर्ष की ट्रेनिंग लेनी पड़ती है तथा आवश्यकता/आपातकाल में सैन्य सेवा करनी होती है.कुछ अन्य देशों में ऐसी सेवा अनिवार्य तो नहीं है लेकिन एक आकर्षक विकल्प के रूप में स्थापित है.

संयुक्त राज्य अमेरिका में गृहयुद्ध (१८६३)के समय सैन्य सेवा अनिवार्य की गयी थी लेकिन तीन सौ डालर जुर्माना देकर कोई अपनी जगह प्रतिस्थानी दे सकता था.इस छूट का दुरुपयोग करते हुए कईयों ने अपनी जगह अपराधियों तथा विकलांगों को भरती करा दिया.प्रथम विश्व युद्ध (१९१७), कोरियाई तथा विएतनाम युद्ध के समय जबरदस्ती भरती की प्रक्रिया पुनः अपनाई गयी.जिमी कार्टर के राष्ट्रपतित्व काल (१९७९) में कानून पारित 26 वर्ष की आयु तक के लोगों के लिए भरती पंजीकरण अनिवार्य कियागया जिससे सेना को आपातकाल में मानव संसाधन उपलब्ध रहे.पंजीकरण न कराने पर जुर्माने की व्यवस्था है लेकिन हाल के वर्षों में किसीको दोषी करार नहीँ कियागया है. पंजीकृत व्यक्तियों को फेडरल तथा स्टेट विश्वविद्यालयों में शुल्कों में छूट होती है , ड्राइविंग लाइसेंस आसानी से बनते हैं तथा ऐसी ही अनेक अन्य सुविधाएँ दी जाती हैं.जो लोग मिलिट्री सर्विस के बाद स्वर्गवासी होते हैं उनके शव नेशनल सिमिट्री में दफनाये जाते हैं और यह अत्यंत सम्मान का  प्रतीक माना जाता है.


दूसरी तरफ चीन ,जिसे कि विश्व की सेनाओं में सर्वाधिक संख्याबल वाला बतलाया जाता है, में यों तो सार्वभौमिक सैन्य सेवा अनिवार्य है लेकिन यह केवल सिद्धांत में है तथा अत्यधिक जनसँख्या होने के कारण इच्छुक लोगों को भी सेवारत नहीं किया जा पाता.


भारत में सैन्य सेवा अनिवार्य नहीं है लेकिन इसको एक अच्छे वैकल्पिक कैरियर के रूप में जाना/प्रचारित किया जाता है. मौलिक अधिकारों के भाग 3 में अनुच्छेद 23शोषण के विरुद्ध अधिकार देता हैं तथा दुर्व्यापार, बेगार और सभी प्रकार के बलात श्रम को प्रतिषिद्ध करता है लेकिन इस अनुच्छेद में ऐसी परिस्थितियों पर ध्यान दिया गया है जिनमे राज्य को लोक नियोजन के लिए अनिवार्य सेवा लेनी पड़ेगी.

देश की रक्षा के लिए सेना में अनिवार्य भर्ती या कठिन परिस्थितियों में पुलिस की सहायता करने का आदेश देना बलात श्रम नहीं है क्योंकि वह अनु०23 (2) के अधीन अनुज्ञेय है. यह भी प्रावधानित है ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म,मूलवंश,जाति या वर्ग या इनमे से किसीके आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा.अनुच्छेद 33, सशस्त्र  बलों के सदस्यों तथा उनके अनुषंगी संगठनो को मौलिक अधिकारों में कमी करने की शक्ति संसद को प्रदान करता है.भारत संघ बनाम एल.डी.बालम सिंह (2002)के वाद में सुप्रीमकोर्ट ने अभिनिर्धारित किया है कि अनु० 33 मूल अधिकारों का अपवाद है. कार्य पालिका के कुछ अंग ऐसे हैं जहाँ स्वतंत्रता को नियंत्रित करना आवश्यक है. सैन्यबल,पुलिस,आसूचना (इंटेलिजेंस)अभिकरण ऐसे ही संगठन हैं जहाँ स्वतंत्रता को सीमित करना आवश्यक है . यह अनुच्छेद संसद को यह शक्ति देता हैकि वह विधि बनाकर यह सीमा तय करे जिसके भीतर अनु० 33 में विनिर्दिष्ट संगठनों के सदस्यों को मूल अधिकार उपलब्ध होंगे.
सेना अधिनियम,नौसेना अधिनियम , वायुसेना अधिनियम,सीमा सुरक्षा बल अधिनियम और इसी प्रकार के अन्य अधिनियम अनु० 19(1)(ग) के अधीन संगम के अधिकार को सीमित करते हैं.पुलिस बल (अधिकारों का निर्बन्धन) अधिनियम १९६६ में यह घोषित किया गया है कि पुलिस बल का कोई सदस्य किसी व्यवसाय संघ या श्रमिक संघ या राजनैतिक संगम कासदस्य नहीं हो सकता.बताया जाता हैकि १९७३ में उ०प्र० में पी.ए.सी.के जवानों ने अपना संघ बनाने की मांग को लेकर आन्दोलन किया था जिसे सख्ती से कुचल दिया गया था. इसी कारण विश्वविद्यालय में भीषण आगजनी हुई थी.


अनु० 34 ऐसी परिस्थिति अनुध्यात करता है जहाँ देश के किसी भाग में सेना विधि( मार्शल लॉ) घोषित की गयी हो . यदि सेना विधि के दौरान व्यवस्था बनाये रखने में कोई अवैध बात की गयी है तो संसद को यह शक्ति दी गयी हैकि वह क्षतिपूर्ति अधिनियम पारित कर सकेगी. सेना विधि ,अनु० 352 के अधीन की गयी उद्घोषणा से भिन्न है.


संविधान के भाग 4क में वर्णित मूल कर्तव्यों में जहाँ प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य बतलाया गया है कि संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों , संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे,भारत की प्रभुता ,एकता और अखंडता की रक्षा करे तथा यह भी स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि "देश की रक्षा करे तथा आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे".

"जननी जन्म भूमिश्च , स्वर्गादपि च गरीयसी" को हृदयंगम  करने वाली भारतीय मनीषा में सैन्य सेवा मात्र कैरियर नहीं बल्कि जीवन को सफल बनाने का एक साधन है.भारतीय सेनाएं शौर्य और वीरता का प्रतिमान हैं.हमारे यहाँ मद्रास,पंजाब,राजपुताना,नगा,डोगरा,जाट, सिख, कुमांऊतथा गढ़वाल रायफल्स ऐसी रेजिमेंट हैं जो साहस,कर्तव्य निष्ठा और दिलेरी के लिए विश्व विख्यात हैं.इनमे विशेष बात यह भी है कि कई परिवार और खानदान पुश्तों दर पुश्तों से अपने पुत्रों को सेना में भरती कराकर गर्व का अनुभव करते हैं.


सैन्य शिक्षा देने के लिए सैनिक स्कूलों के साथ-साथ राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज ,नेशनल डिफेन्स अकादमी , कॉलेज ऑफ़ डिफेन्स मैनेजमेंट, डिफेन्स सर्विसेस स्टाफ कॉलेज ऐसे प्रख्यात संस्थाओं के अलावा गुडगाँव में इंडियन नेशनल डिफेन्स यूनिवर्सिटी की स्थापना हो चुकी है जो सेना पाठ्यक्रम से सम्बंधित यू0जी० /पी० जी० तथा रिसर्च कार्यक्रम चलायेगी , सन १९६२ के चीन युद्ध के बाद देश की सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबंद करने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी.उसी के अंतर्गत दसवीं के बाद एन.सी.सी. की ट्रेनिंग लागूं की गयी थी जिसमे थल,नभ तथा नौ सेना का प्रारंभिक सैद्धांतिक तथा प्रायोगिक ज्ञान दिया जाता है.एन.सी.सी. का " बी" और  " सी" प्रमाण पत्र धारकों को सेना तथा अन्य सेवाओं एवं इंजीनियरिंग/मेडिकल समेत विश्वविद्यालयी पाठ्य क्रमों में प्रवेश में वरीयता /वेटज दिया जाता है.सैन्य सेवा की शर्तें आकर्षक बनाई गयीं हैं जिससे नवयुवक/युवतियां इसमें शामिल हों.हाल में महिलाओं को भी स्थाई कमीशन दिया जाना अनुमन्य हुआ है. अब तो फाइटर प्लेन चलाने के लिए भी महिलायें चयनित हो चुकी हैं.

 
इधर हाल के वर्षों में सेना के तीनो अंग मानव संसाधन की कमी से जूझ रहे हैं.थल सेना से इस्तीफा देकर प्राइवेट सिक्यूरिटी एजेंसी चला रहे हैं तो नभ सेना से अलग हो कर प्राइवेट प्लेन चला रहे हैं.लोग अपने पाल्यों को उच्च शिक्षा दिलाकर मल्टीनेशनल कंपनियों,कार्पोरेशनों तथा कई बार विदेश में नौकरी कराने के लिए उद्द्यत हो रहे हैं.जनसँख्या नियंत्रण कार्यक्रम अपनाने के कारण एक-दो बच्चे हैं अतः उन्हें सेना की जोखिम भरी सेवा से विरत रखते हैं.उधर सिविल सेवाओं में अनुशासन ,उत्तरदायित्व तथा जवाबदेही में कमी आने से स्तरहीनता दिखलाई पड़ रही है.इन्ही सब कारणों से संसदीय समिति ने उक्त सिफारिश की है.
एक जनतांत्रिक देश में सैन्य तथा सिविल सेवाएँ अलग-अलग हैं तथा सामान्यतः सेना को नागरिक सेवाओं से दूर रखना ही बेहतर होता है.अत्यंत आपात स्थिति में ही सेना की सहायता ली जानी चाहिए.इससे सेना तथा नागरिक प्रशासन में सामंजस्य रहेगा तथा दोनों का मनोबल ऊँचा रहेगा.संविधान निर्माताओं ने इस बात का विशेष ध्यान रखा था. संविधान ने कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित करते हुए संघ के रक्षाबलों का सर्वोच्च समादेश भी निहित किया है लेकिन इसका प्रयोग विधि द्वारा नियमित किया है.देश में सेना ही सत्ता पर काबिज़ न हो जाये, इसके लिए भी पर्याप्त रक्षोपाय किये गए हैं.


काम का अधिकार मूल अधिकार न होकर राज्य के नीति निदेशकों का ही हिस्सा हैं जिसमे समान कार्य के लिए सामान वेतन के साथ पुरुष और स्त्री , सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त कराने का समादेश है.संसद तथा राज्य   विधान मंडल विधि बना कर  सरकारी सेवाओं में भरती के लिए पांच साल की अनिवार्य सैन्य सेवा का प्रावधान कर सकते हैं.मेडिकल में प्रवेश के लिए गाँव में पांच वर्ष तक अनिवार्य सेवा की शर्तें विधिमान्य हैं.यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन हैकि एक बार सेना की सेवा करने के बाद उस व्यक्ति पर सेना का अनुशासन हावी रहेगा जो समय के साथ गहराता जायेगा.सेना-सिविलियंस का गठजोड़ प्रजातान्त्रिक मूल्यों,और प्रतिबद्धताओं पर भारी  पड़ सकता है.

एक बात और है. अभी सेना में किसी प्रकार का आरक्षण नहीं है जबकि सरकारी नौकरियों में यह पचास प्रतिशत तक है.अनिवार्य सैन्य सेवा की शर्त अधिरोपित करने से संविधान की उद्देशिका में वर्णित सामजिक न्याय पाने के लिए भी नये प्रतिमान निश्चित करने होंगे.संसदीय समिति की सिफारिशें स्वागत योग्य हैं लेकिन गहन विचार -विमर्श के उपरान्त ही इस पर अमल अपेक्षित है.





Saturday 17 March 2018

सरोगेसी  कानून : अनसुलझे प्रश्न 
डॉक्टर निरुपमा अशोक 

अभी हाल में केंद्र सरकार ने सरोगेसी कानून ( किराये पर कोख देने सम्बन्धी विधि ) के प्रारूप को अन्तिम रूप दिया है।  केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसे स्वीकार कर लिया है तथा आशा की जानी चाहिए कि संसद के आगामी सत्र में इस पर विचार विमर्श  होगा। प्रस्तावित कानून के ज़रिये उन दम्पत्तियों को अपने किसी रिश्तेदार या दोस्त की कोख इस्तेमाल करने की छूट होगी जो स्वयं अक्षम हैं तथा उनके विवाह हुए पांच वर्ष बीत चुके हैं लेकिन उन्हें संतान सुख नहीं मिल पाया है। प्रस्तावित कानून के द्वारा कोख के व्यावसायिक उपयोग पर पूरी तरह से रोक लगाई गयी है।  यही नहीं विदेशियों , एकल पुरुष तथा स्त्रियों , समलैंगिकों तथा लिव - इन रिश्तों में रह रहे युगलों को भी इसके दायरे से दूर रखा गया है।  दरअसल कानून के द्वारा सिर्फ विवाहित युगलों को सरोगेसी सुविधा उपलब्ध कराने के पीछे विवाह-संस्था की पवित्रता को अक्षुण्ण रखते हुए उन्हें संतान सुख दिलाने की मंशा पूरी हो रही है।
अभी तक सरोगेसी को लेकर भारत में कोई विशिष्ट कानून नहीं है।  देश में उन्नत तथा अत्यंत आधुनिक मेडिकल  सेवाओं के उपलब्ध होने के कारण पिछले वर्षों में टेस्ट ट्यूब बेबी तथा सरोगेसी  का व्यापार प्रायः दो बिलियन डॉलर तक पहुँच गया, बताया जा रहा है।  केवल सरोगेसी के द्वारा पच्चीस हज़ार शिशु जन्म ले रहे हैं जिनमे अस्सी प्रतिशत विदेशी दम्पत्तियों के हैं।  गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान में ऐसे नर्सिंग होमों की बाढ़ आ गयी है जो आई ० वी ० ऍफ़ ० या इससे मिलती जुलती तकनीकों से ऐसे व्यक्तियों को संतान सुख दे रहे हैं जो इसके लिए व्यय वहन  करने के लिए तैयार हैं।  बेकारी और गरीबी की मार  झेल रही बहुत सी स्त्रियां इसके लिए सहमति भी दे रहीं हैं तथा इससे प्राप्त धन से वे अपने परिवार का पोषण कर रही हैं।  कई स्त्रियों ने तो अपनी कोख पांच छः बार तक किराये पर दी है , जिससे उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ा है।  प्रस्तावित कानून में अधिकतम एक बार ही किसी की कोख का अन्यों  द्वारा इस्तेमाल किया जा सकेगा। 

सरोगेसी सम्बंधित विधि के न होने के कारण मामले को संविदा अधिनियम तथा अन्य लागू कानूनों की परिधि में  निपटाया जाता है।  दरअसल , सरोगेसी अनुबंध में तीन पक्षकार होते हैं :एक जैविक ( बायोलॉजिकल ) दम्पति , दूसरी सरोगेट स्त्री (जिसकी कोख इस्तेमाल की जानी है ) तथा तीसरा वह डॉक्टर या नर्सिंग होम जिसके द्वारा यह सब कार्यवाही संचालित होती है।  ऐसे करार में जननी को निश्चित अवधि तक नर्सिंग होम में ही रहना होता है जिसका खर्च उठाया जाता है , कोख का किराया दिया जाता है तथा चिकित्सक को उसकी सेवा के बदले ऊंची फीस दी जाती है।  लेकिन इन अनुबंधों में सबसे कमजोर पक्ष वह जननी होती है जिसकी कोख का इस्तेमाल होता है।  अनुबंध में प्रावधान रखा जाता है की यदि कोई जटिलता होती है या शिशु की जान को खतरा हो तो शिशु को बचाया जायेगा।  एक बहु प्रचारित मामले में गर्भ के आठवें महीने में सरोगेट स्त्री गिर पड़ी।  डॉक्टरों ने जननी की जान बचाने की बजाय आपरेशन कर गर्भस्थ शिशु को तो बचा लिया लेकिन स्त्री की मृत्यु हो गयी।  फिर भी उसके परिवार जन  प्रतिकर  नहीं पा सके।  यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गर्भ के चिकित्सकीय समापन अधिनियम  में माँ को बचाने को प्राथमिकता दी गयी है।

सरोगेसी  से सम्बन्धित बहुत से मामले न्यायालय की चौखट तक पहुंचे हैं।  सन 2008 में एक जापानी डॉक्टर दम्पति ने गुजरात की स्त्री को सरोगेट अनुबंधित किया तथा उससे एक कन्या का जन्म हुआ , लेकिन इस बीच इस युगल  में तलाक़ हो गया।  यह बच्ची माता-पिता विहीन तो हुई ही , राष्ट्रीयता विहीन भी हो गयी।  अंततः उस बच्ची को उसकी दादी माँ ले गई लेकिन उसे नागरिकता नहीं मिली थी।  ज्ञातव्य है कि जापान में सरोगेसी पर प्रतिबन्ध है। सन 2012 में एक सिहरन  पैदा करने   वाला मामला प्रकाश में आया।  एक ऑस्ट्रेलियाई युगल ने सरोगेसी हेतु अनुबंध से पैदा हुए जुड़वाँ बच्चों में से एक को ही स्वीकार किया तथा अपने साथ ले गए।  दूसरा शिशु यहीं रह रहा है जो उस स्त्री पर दायित्व बन गया है।  इस मामले में एक ऑटो चालक  की  भूमिका प्रकाश में आयी जिसने स्त्री को मात्र  पिचहत्तर  हज़ार रुपये दिलाये तथा बिचौलिये और स्वयं ने बड़ी रकम उदरस्थ कर ली।  चेन्नई की एक अविवाहित गरीब स्त्री के गले में यह शिशु आ पड़ा है।  सन 2014 में दिल्ली में एक स्त्री का बीज ( ओवम )प्रत्यावर्तित करते हुए सर्जरी के दौरान मौत हो गयी।  ऐसे अनेकानेक उदाहरण चर्चा में आये हैं जिनमे सरोगेट स्त्री को  कोई प्रतिकर  प्राप्त नहीं हुआ है।


एक अन्य रोचक किस्सा इंग्लैण्ड का है जिसमे किराये की कोख देने वाली स्त्री ने उस नवजात शिशु को  वापस करने से इन्कार कर दिया जिसके लिए गर्भधारण करने से पूर्व उसने अनुबंध किया था तथा प्रतिफल के रूप में अच्छी खासी रकम ली थी।  बताया जाता है कि  एक निःसंतान दम्पति ने अखबार में विज्ञापन देकर ऐसी स्त्री की दरकार की थी जो किराया लेकर अपनी कोख में दम्पति के निषेचित डिम्ब को धारण करे तथा प्रसूति के छह  महीने के बाद शिशु को उसके जैविक माता-पिता को वापस कर दे।  लेकिन प्रसवोपरांत सरोगेट महिला को उस शिशु से इतना भावनात्मक लगाव हो गया कि  उसने वह सारा धन ब्याज सहित लौटाने की पेशकश की लेकिन बच्चे को अपने से अलग करने से इनकार कर दिया।  मामला अदालत गया लेकिन फैसला जननी माँ के पक्ष में सुनाया गया।  अदालत का कहना था कि नौ महीने अपनी कोख में पालने वाली माँ का उस बच्चे पर प्रथम अधिकार है तथा निः  संतान दम्पति को ऐसी स्त्री से संविदा भंग के लिए मात्र प्रतिकर  पाने का अधिकार है। ऐसी संविदा का विशिष्ट अनुपालन न तो विधिक रूप से संभव और न ही उचित , क्योंकि स्त्री बीज ( ओवम ) तथा स्पर्म के अलावा बाकी सब कुछ इसी सरोगेट स्त्री का था।  शिशु का बृहत्तर हित  भी इसी में है  कि उसे अपनी माँ के पास रहने दिया जाये।  ऐसे ही एक अन्य रोचक मामले में विवाह-विच्छेद के लिए मुकदमा लड़ रहे दो पतियों ने अपनी पत्नियों की इस मांग को मानने से इनकार कर दिया जिसके द्वारा उन्होंने बिना शारीरिक सम्बन्ध बनाये आई ० वी ० एफ ० तकनीक से गर्भवती होने की मांग की थी।

सरोगेसी को लेकर नीति,नैतिकता तथा मर्यादा के कई प्रश्न उलझे हुए हैं।  प्रायः प्रत्येक धर्म में विवाह की संस्था पवित्र मानी गयी है तथा इससे पैदा हुई संतान को ही वैधानिकता प्रदान की गयी है.गर्भपात कराना अवैध ही नहीं अपराध है। संतान उत्पत्ति के नैसर्गिक नियमो में किसी भी रूकावट को मान्यता नहीं है।  कई सम्प्रदायों में नियोग पद्धति द्वारा संतानोत्पत्ति अनुमत है लेकिन यह  पुरुषों की नपुंसकता  का हल है।  स्त्री की प्रजनन क्षमता क्षीण होने पर दूसरी स्त्री से विवाह होता था लेकिन अब यह अवैध है।  हिन्दू विवाह अधिनियम के द्विविवाह पर रोक लगाने जाने वाले प्रावधान को उच्चतम न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि प्रत्येक हिन्दू की कपाल क्रिया करने के लिए पुत्र आवश्यक है तथा उसे पुत्र प्राप्ति के लिए दूसरा विवाह करने की अनुमति होनी चाहिए जो उसका धार्मिक अधिकार है , माना नहीं गया था।  न्यायालय का कहना था कि यदि किसी हिन्दू के पुत्र नहीं हो रहा है तो वह दत्तक ग्रहण कर सकता है लेकिन दूसरा विवाह अवैध होगा।

दरअसल सरोगेसी तकनीक की मांग में इसलिए भी बाढ़  आई है कि अब अक्षम दम्पति ही नहीं बल्कि एकल पुरुष तथा स्त्रियां , समलैंगिक जोड़े तथा लिव -इन रिश्तों में रहने वाले युगल गर्भाधान के पचड़े में पड़े बिना संतानोत्पत्ति चाहते हैं क्योंकि मेडिकल साइंस तथा जेनेटिक इंजीनियरिंग ने इसे संभव बना दिया है।  विधि की दृष्टि से लिव -इन रिलेशनशिप तथा एकल पुरुष-स्त्री द्वारा संतानोत्पत्ति अवैध नहीं है।  कई देशों में लिव -इन रिश्तों को विवाह के समकक्ष मान्यता मिली हुई है।  हर स्त्री को अपने शरीर पर पूरा अधिकार है तथा गर्भधारण/ गर्भपात उसकी अपनी मर्ज़ी है जिस पर कानून रोक नहीं लगा सकता।  हाँ , शरीर के व्यवसायिक उपयोग को रोक जा सकता है क्योंकि यह प्रचलित मान्यताओं तथा नैतिकता के विरुद्ध है।  वैश्यावृत्ति पर लगी रोक इसी कारण वैध है।  कहा जा रहा है कि सरोगेसी भी प्रच्छन्न वैश्यावृत्ति है क्योंकि कोख को किराये पर देना उसी का एक प्रकार है।  स्त्री स्वातंत्र्य के पुरोधा इसका पुरज़ोर विरोध करते हैं।  उनका कहना है कि यदि पुरुष अपना शुक्राणु बेच सकता है तो स्त्री अपनी कोख क्यों नहीं दे सकती? ' विकी डोनर 'फिल्म की कथा वस्तु इसीसे मिलती जुलती है।

प्रस्तावित कानून के बनने से पहिले ही उसकी आलोचना प्रारम्भ हो गयी है।  विदेशी युगलों को अनुमति न देने का तो समर्थन हो रहा है लेकिन अन्यों का नहीं।  कई देशों में इस पर पूर्णतः प्रतिबन्ध है।  लेकिन एकल स्त्री पुरुषों  तथा लिव -इन रिश्तों को कानूनी मान्यता प्राप्त है। यह अभी तक गोद लेकर अपनी इच्छा पूरी करते हैं। जो दम्पति सक्षम हैं वे भी इसके द्वारा संतान चाहते हैं।  बॉलीवुड के एक पॉपुलर स्टार ने भी इसी प्रकार एक संतान प्राप्त की बताया जा रहा है,जबकि उनके अपने पुत्र-पुत्री हैं. थोड़े दिन पहले एक अनब्याही महिला ने उच्चतम न्यायालय में गुहार लगाईं थी कि उसके शिशु को अपनी माँ के नाम के साथ पासपोर्ट जारी किया जाए तथा  अधिकारियों को आदेश दिया जाए कि वे शिशु के पिता के नाम बताने पर जोर न दें। न्यायालय ने इसकी अनुमति भी दे दी। ऐसे एकल स्त्री पुरुषों की संख्या बहुतायत में है जो विवाह बंधन में बंधे बिना संतान चाहतें हैं।  समलैंगिकों की भी पर्याप्त संख्या है जो सरोगेसी के माध्यम से संतानोत्पत्ति चाहते हैं।  चूँकि इस पद्धति में बीज / स्पर्म अपना होता है अतः ऐसे बच्चे में अपने पन  का भाव अधिक रहता है।  यही नहीं , समय दूर नहीं है जब मानव-क्लोन बनना वास्तविकता हो जाएगी।  इसमें भी सरोगेसी तकनीक का सहारा लेना मजबूरी होगी।

भारतीय संविधान में यों तो स्त्रियों को बराबरी का हक़ दिया गया है तथा कुछ स्थितियों  में अतिरिक्त रक्षोपाय भी हैं , लेकिन परिवार तथा विवाह संस्था को बचाये रखने के लिए दम्पतियों पर बंदिशें भी हैं।  नरगिस मिर्ज़ा के केस में यह निर्धारित किया जा चुका  है क़ि हर स्त्री को माँ बनने का नैसर्गिक अधिकार है लेकिन यह स्वयं के सुख के लिए होना चाहिए तथा स्वीकार्य मापदण्डों के अन्तर्गत होना चाहिए. सरोगेसीपर चल रही बहस में नीति , नैतिकता तथा मर्यादा के प्रश्नों के साथ स्त्री स्वातंत्र्य अधिकारों के मध्य सामंजस्य की मांग की जा रही है।

सरोगसी कानून को लेकर अभी यही प्रश्न तैर रहे हैं।  उस शिशु के अधिकारों पर चर्चा नहीं हो रही है जो इस माध्यम से जन्म ले रहा है।  वयस्क होने पर क्या उसे कपनी जननी माँ को भरण- पोषण देने के लिए बाध्य किया जा सकेगा  या घरेलू हिंसा अधिनियम के अन्तर्गत दाई ठहराया जा सकेगा, यदि उसके जैविक माता-पिता की मृत्यु हो जाए ? क्या जैविक माता-पिता अनुबंध करके उस सरोगेट को अपनी संपत्ति में हिस्सा देकर बच्चे के अधिकारों पर कुठारा  घात  कर सकतें हैं?यदि स्त्री बीज(ओवम) के साथ-साथ पुरुष शुक्राणु भी एक से अधिक लोगों के लिए जाएँ तो स्थिति  और भी जटिल तथा दुरूह हो जाएगी।शिशु की पहचान के संकट  के साथ प्रचलित मान्यतायों तथा विधिक प्रावधानों की पुनर्व्याख्या करनी होगी।  नागरिकता तथा राष्ट्रीयता के प्रश्न भी महत्वपूर्ण हैं।

भारत में सरोगेसी इंडस्ट्री अपने शबाब पर है।  इन्टरनेट पर खुलेआम ऐसी स्त्रियों के फोटो तथा अन्य जानकारी उपलब्ध है जो अपनी कोख को किराये पर देने के लिए तैयार हैं।  शुक्राणु देने वालों के बारे में भी जानकारी उपलब्ध है।  गोपनीयता की भी गारन्टी दी जा रही है।  आई ० वी ० ऍफ़ ० तकनीक को विस्तार से समझाया जाता है तथा जोखिम भी बतलाई जाती है।  इन सबका खुलेआम विज्ञापन किया जा  रहा है।  आशंका व्यक्त की जा रही है की यदि इस पर कानूनी रोक लगाई गयी तो इसमें भी अवैध धंधा फलने फूलने लगेगा। मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम में सिर्फ नजदीकी रिश्तेदारों/मित्रों के अंग लेने का प्राविधान है तथा इसके व्यवसायिक उपयोग पर रोक है लेकिन इसमें काला  बाजार फल-फूल रहा है और कई नामी-गरामी अस्पताल भी इसमें लिप्त बताये जा रहे हैं।  यह एक यक्ष प्रश्न है क़ि क्या कोई भाभी,बहन या साली अपने देवर/जेठ ,भाई या जीजा के लिए अपना गर्भ उधार  देने के लिए राज़ी हो जाएगी ?  थोड़े दिन पूर्व बरेली से समाचार मिला था कि दो बहिनों में एक प्रजनन के लायक नहीं थी तथा दूसरी बहन आई वी ऍफ़ से जीजा के शुक्राणु से डिम्ब को निषेचित कर अपने गर्भ से संतान पैदा करने को राजी थी, लेकिन पत्नी राजी नहीं हुई।  गनीमत थी कि बहनों की माँ सक्षम थी और उसीने अपने दामाद की संतान को जन्म दिया।     

सरकारी नौकरी हेतु अनिवार्य सैन्य सेवा की विधिमान्यता





रक्षामंत्रालय से सम्बंधित संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की है कि ऐसे लोग जो सरकारी नौकरी पाना चाहते हैं, उनके लिए पांच साल की सैन्य सेवा अनिवार्य की जाये. समिति की अनुशंसा है कि केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा नयी भर्ती में यह नियम लागू किया जाये. समिति ने थल,जल तथा वायु सेना में योग्य अधिकारियों तथा कर्मकारों की भरी कमी पर चिंता व्यक्त करते हुए आशा व्यक्त की है कि ऐसा करने पर न केवल सेना में मानव संसाधन की संख्या बढ़ेगी वरन सिविल सेवाओं में देश प्रेम , अनुशासन  तथा समर्पण का भाव जाग्रत होगा तथा प्रशासनिक अधिकारी बिना किसी डर या दबाव के काम करने को उद्द्यत होंगे. सेना  की दुर्गम सेवाओं का एहसास होगा तथा सैनकों के प्रति श्रद्धा बढ़ेगी. अभी तक सिविल सेवाओं के लिए ऐसी कोई शर्त तो नहीं है लेकिन शार्ट सर्विस कमीशन पाए तथा भूतपूर्व सैनिकों/पाल्यों के लिए एक सीमित प्रतिशत तक स्थान आरक्षित हैं.


मक्सिको समेत कई देशों में 18 से 26 वर्ष की आयु के पुरुषों/महिलाओं को अनिवार्य सैन्य सेवा देनी होती है.अन्यान्य देशों में इनको पंजीकरण कराना होता है,20 दिन से लेकर तीन वर्ष की ट्रेनिंग लेनी पड़ती है तथा आवश्यकता/आपातकाल में सैन्य सेवा करनी होती है.कुछ अन्य देशों में ऐसी सेवा अनिवार्य तो नहीं है लेकिन एक आकर्षक विकल्प के रूप में स्थापित है.

संयुक्त राज्य अमेरिका में गृहयुद्ध (१८६३)के समय सैन्य सेवा अनिवार्य की गयी थी लेकिन तीन सौ डालर जुर्माना देकर कोई अपनी जगह प्रतिस्थानी दे सकता था.इस छूट का दुरुपयोग करते हुए कईयों ने अपनी जगह अपराधियों तथा विकलांगों को भरती करा दिया.प्रथम विश्व युद्ध (१९१७), कोरियाई तथा विएतनाम युद्ध के समय जबरदस्ती भरती की प्रक्रिया पुनः अपनाई गयी.जिमी कार्टर के राष्ट्रपतित्व काल (१९७९) में कानून पारित 26 वर्ष की आयु तक के लोगों के लिए भरती पंजीकरण अनिवार्य कियागया जिससे सेना को आपातकाल में मानव संसाधन उपलब्ध रहे.पंजीकरण न कराने पर जुर्माने की व्यवस्था है लेकिन हाल के वर्षों में किसीको दोषी करार नहीँ कियागया है. पंजीकृत व्यक्तियों को फेडरल तथा स्टेट विश्वविद्यालयों में शुल्कों में छूट होती है , ड्राइविंग लाइसेंस आसानी से बनते हैं तथा ऐसी ही अनेक अन्य सुविधाएँ दी जाती हैं.जो लोग मिलिट्री सर्विस के बाद स्वर्गवासी होते हैं उनके शव नेशनल सिमिट्री में दफनाये जाते हैं और यह अत्यंत सम्मान का  प्रतीक माना जाता है.


दूसरी तरफ चीन ,जिसे कि विश्व की सेनाओं में सर्वाधिक संख्याबल वाला बतलाया जाता है, में यों तो सार्वभौमिक सैन्य सेवा अनिवार्य है लेकिन यह केवल सिद्धांत में है तथा अत्यधिक जनसँख्या होने के कारण इच्छुक लोगों को भी सेवारत नहीं किया जा पाता.


भारत में सैन्य सेवा अनिवार्य नहीं है लेकिन इसको एक अच्छे वैकल्पिक कैरियर के रूप में जाना/प्रचारित किया जाता है. मौलिक अधिकारों के भाग 3 में अनुच्छेद 23शोषण के विरुद्ध अधिकार देता हैं तथा दुर्व्यापार, बेगार और सभी प्रकार के बलात श्रम को प्रतिषिद्ध करता है लेकिन इस अनुच्छेद में ऐसी परिस्थितियों पर ध्यान दिया गया है जिनमे राज्य को लोक नियोजन के लिए अनिवार्य सेवा लेनी पड़ेगी. 


देश की रक्षा के लिए सेना में अनिवार्य भर्ती या कठिन परिस्थितियों में पुलिस की सहायता करने का आदेश देना बलात श्रम नहीं है क्योंकि वह अनु०23 (2) के अधीन अनुज्ञेय है. यह भी प्रावधानित है ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म,मूलवंश,जाति या वर्ग या इनमे से किसीके आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा.अनुच्छेद 33, सशस्त्र  बलों के सदस्यों तथा उनके अनुषंगी संगठनो को मौलिक अधिकारों में कमी करने की शक्ति संसद को प्रदान करता है.भारत संघ बनाम एल.डी.बालम सिंह (2002)के वाद में सुप्रीमकोर्ट ने अभिनिर्धारित किया है कि अनु० 33 मूल अधिकारों का अपवाद है. कार्य पालिका के कुछ अंग ऐसे हैं जहाँ स्वतंत्रता को नियंत्रित करना आवश्यक है. सैन्यबल,पुलिस,आसूचना (इंटेलिजेंस)अभिकरण ऐसे ही संगठन हैं जहाँ स्वतंत्रता को सीमित करना आवश्यक है . यह अनुच्छेद संसद को यह शक्ति देता हैकि वह विधि बनाकर यह सीमा तय करे जिसके भीतर अनु० 33 में विनिर्दिष्ट संगठनों के सदस्यों को मूल अधिकार उपलब्ध होंगे.
सेना अधिनियम,नौसेना अधिनियम , वायुसेना अधिनियम,सीमा सुरक्षा बल अधिनियम और इसी प्रकार के अन्य अधिनियम अनु० 19(1)(ग) के अधीन संगम के अधिकार को सीमित करते हैं.पुलिस बल (अधिकारों का निर्बन्धन) अधिनियम १९६६ में यह घोषित किया गया है कि पुलिस बल का कोई सदस्य किसी व्यवसाय संघ या श्रमिक संघ या राजनैतिक संगम कासदस्य नहीं हो सकता.बताया जाता हैकि १९७३ में उ०प्र० में पी.ए.सी.के जवानों ने अपना संघ बनाने की मांग को लेकर आन्दोलन किया था जिसे सख्ती से कुचल दिया गया था. इसी कारण विश्वविद्यालय में भीषण आगजनी हुई थी.


अनु० 34 ऐसी परिस्थिति अनुध्यात करता है जहाँ देश के किसी भाग में सेना विधि( मार्शल लॉ) घोषित की गयी हो . यदि सेना विधि के दौरान व्यवस्था बनाये रखने में कोई अवैध बात की गयी है तो संसद को यह शक्ति दी गयी हैकि वह क्षतिपूर्ति अधिनियम पारित कर सकेगी. सेना विधि ,अनु० 352 के अधीन की गयी उद्घोषणा से भिन्न है.


संविधान के भाग 4क में वर्णित मूल कर्तव्यों में जहाँ प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य बतलाया गया है कि संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों , संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे,भारत की प्रभुता ,एकता और अखंडता की रक्षा करे तथा यह भी स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि "देश की रक्षा करे तथा आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे".


"जननी जन्म भूमिश्च , स्वर्गादपि च गरीयसी" को हृदयंगम  करने वाली भारतीय मनीषा में सैन्य सेवा मात्र कैरियर नहीं बल्कि जीवन को सफल बनाने का एक साधन है.भारतीय सेनाएं शौर्य और वीरता का प्रतिमान हैं.हमारे यहाँ मद्रास,पंजाब,राजपुताना,नगा,डोगरा,जाट, सिख, कुमांऊतथा गढ़वाल रायफल्स ऐसी रेजिमेंट हैं जो साहस,कर्तव्य निष्ठा और दिलेरी के लिए विश्व विख्यात हैं.इनमे विशेष बात यह भी है कि कई परिवार और खानदान पुश्तों दर पुश्तों से अपने पुत्रों को सेना में भरती कराकर गर्व का अनुभव करते हैं.


सैन्य शिक्षा देने के लिए सैनिक स्कूलों के साथ-साथ राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज ,नेशनल डिफेन्स अकादमी , कॉलेज ऑफ़ डिफेन्स मैनेजमेंट, डिफेन्स सर्विसेस स्टाफ कॉलेज ऐसे प्रख्यात संस्थाओं के अलावा गुडगाँव में इंडियन नेशनल डिफेन्स यूनिवर्सिटी की स्थापना हो चुकी है जो सेना पाठ्यक्रम से सम्बंधित यू0जी० /पी० जी० तथा रिसर्च कार्यक्रम चलायेगी , सन १९६२ के चीन युद्ध के बाद देश की सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबंद करने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी.उसी के अंतर्गत दसवीं के बाद एन.सी.सी. की ट्रेनिंग लागूं की गयी थी जिसमे थल,नभ तथा नौ सेना का प्रारंभिक सैद्धांतिक तथा प्रायोगिक ज्ञान दिया जाता है.एन.सी.सी. का " बी" और  " सी" प्रमाण पत्र धारकों को सेना तथा अन्य सेवाओं एवं इंजीनियरिंग/मेडिकल समेत विश्वविद्यालयी पाठ्य क्रमों में प्रवेश में वरीयता /वेटज दिया जाता है.सैन्य सेवा की शर्तें आकर्षक बनाई गयीं हैं जिससे नवयुवक/युवतियां इसमें शामिल हों.हाल में महिलाओं को भी स्थाई कमीशन दिया जाना अनुमन्य हुआ है. अब तो फाइटर प्लेन चलाने के लिए भी महिलायें चयनित हो चुकी हैं.

 
इधर हाल के वर्षों में सेना के तीनो अंग मानव संसाधन की कमी से जूझ रहे हैं.थल सेना से इस्तीफा देकर प्राइवेट सिक्यूरिटी एजेंसी चला रहे हैं तो नभ सेना से अलग हो कर प्राइवेट प्लेन चला रहे हैं.लोग अपने पाल्यों को उच्च शिक्षा दिलाकर मल्टीनेशनल कंपनियों,कार्पोरेशनों तथा कई बार विदेश में नौकरी कराने के लिए उद्द्यत हो रहे हैं.जनसँख्या नियंत्रण कार्यक्रम अपनाने के कारण एक-दो बच्चे हैं अतः उन्हें सेना की जोखिम भरी सेवा से विरत रखते हैं.उधर सिविल सेवाओं में अनुशासन ,उत्तरदायित्व तथा जवाबदेही में कमी आने से स्तरहीनता दिखलाई पड़ रही है.इन्ही सब कारणों से संसदीय समिति ने उक्त सिफारिश की है.
एक जनतांत्रिक देश में सैन्य तथा सिविल सेवाएँ अलग-अलग हैं तथा सामान्यतः सेना को नागरिक सेवाओं से दूर रखना ही बेहतर होता है.अत्यंत आपात स्थिति में ही सेना की सहायता ली जानी चाहिए.इससे सेना तथा नागरिक प्रशासन में सामंजस्य रहेगा तथा दोनों का मनोबल ऊँचा रहेगा.संविधान निर्माताओं ने इस बात का विशेष ध्यान रखा था. संविधान ने कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित करते हुए संघ के रक्षाबलों का सर्वोच्च समादेश भी निहित किया है लेकिन इसका प्रयोग विधि द्वारा नियमित किया है.देश में सेना ही सत्ता पर काबिज़ न हो जाये, इसके लिए भी पर्याप्त रक्षोपाय किये गए हैं.

काम का अधिकार मूल अधिकार न होकर राज्य के नीति निदेशकों का ही हिस्सा हैं जिसमे समान कार्य के लिए सामान वेतन के साथ पुरुष और स्त्री , सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त कराने का समादेश है.संसद तथा राज्य   विधान मंडल विधि बना कर  सरकारी सेवाओं में भरती के लिए पांच साल की अनिवार्य सैन्य सेवा का प्रावधान कर सकते हैं.मेडिकल में प्रवेश के लिए गाँव में पांच वर्ष तक अनिवार्य सेवा की शर्तें विधिमान्य हैं.यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन हैकि एक बार सेना की सेवा करने के बाद उस व्यक्ति पर सेना का अनुशासन हावी रहेगा जो समय के साथ गहराता जायेगा.सेना-सिविलियंस का गठजोड़ प्रजातान्त्रिक मूल्यों,और प्रतिबद्धताओं पर भारी  पड़ सकता है.


एक बात और है. अभी सेना में किसी प्रकार का आरक्षण नहीं है जबकि सरकारी नौकरियों में यह पचास प्रतिशत तक है.अनिवार्य सैन्य सेवा की शर्त अधिरोपित करने से संविधान की उद्देशिका में वर्णित सामजिक न्याय पाने के लिए भी नये प्रतिमान निश्चित करने होंगे.संसदीय समिति की सिफारिशें स्वागत योग्य हैं लेकिन गहन विचार -विमर्श के उपरान्त ही इस पर अमल अपेक्षित है.





Friday 16 March 2018

राज्य- ध्वज की मांग अनुचित,अनैतिक ही नहीं देश की अखंडता पर आंच हैं




कर्णाटक के मुख्य मंत्री ने केंद्र सरकार के पास अपने राज्य के लिए अलग ध्वज को मान्यता देने की मांग भेजी है. यह ध्वज पीले, लाल और श्वेत पट्टियों का है जिसमे राज्य के प्रतीक चिह्न को मध्य में उकेरा गया है. कन्नड़ अस्मिता के प्रतीक "गंडा भेरुन्दी" ( दो सिरों वाली मिथकीय मछली ) का यह चिह्न हिंदी को तथाकथित जबरन लादे जाने के विरोध में वर्षों से आन्दोलन के रूप में प्रदर्शित किया जाता रहा है. कतिपय राजनैतिक दलों ने श्वेत पट्टिका हटाने तथा पीली-लाल पट्टियों को ही राज्य ध्वज के रूप में स्वीकार किया है. केंद्र सरकार ने ऐसी मांग पर नकारात्मक रुख दिखलाया है , लेकिन वहां आसन्न  विधान सभा चुनाव के माहौल में यह क्या गुल खिलायेगा ,यह भविष्य ही बतलायेगा. कावेरी नदी के जल बटवारे पर तमिलनाडु के साथ विवाद में होने वाले आन्दोलन में यही  ध्वज लहराया जाता है.


वर्तमान में जम्मू-कश्मीर छोड़ कर किसी भी राज्य का अलग ध्वज नहीं है.ज्ञातव्य है कि संविधान के अनुच्छेद 370 के कारण वहां का संविधान ही अलग है तथा देश के अधिकांश क़ानून वहां के विधान मंडल द्वारा पारित होने के बाद ही लागू हैं.वहां के संविधान पर अंतिम निर्णय राष्ट्रपति की सहमति से ही होता है.


सन १९६९ में करूणानिधि के नेतृत्व वाली द्रमुक नें भी अलग झण्डे का प्रारूप प्रस्तुत किया था जिसमें ऊपर बांये किनारे पर भारत का राष्ट्रीय ध्वज अंकित था. तत्समय राष्ट्रपति,राज्यपालों के  तथा कई अलग -अलग ध्वज प्रचलित थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने न केवल अलग ध्वज की मांग को कठोरता से ठुकरा दिया था बल्कि सेना के रेजीमेंटों को छोड़कर विभिन्न झण्डों का अस्तित्व समाप्त कर केवल तिरंगे को ही मान्यता दी थी.उसके बाद से अब विभिन्न सरकारी इमारतों, राष्ट्रपति भवन तथा राजभवनों आदि पर केवल तिरंगा ही फहराया जाता है.खालिस्तान, गोरखालैंड, बोडोलैंड वगैरह अलगाव वादी आन्दोलनकारियों ने अपने-अपने ध्वज घोषित कर रखे हैं तथा गाहे-बगाहे समाचार-पत्रों तथा मीडिया में नज़र आते हैं . यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि राज्यों ने अपने-अपने प्रतीक चिह्न बना रखें हैं लेकिन सरकारी पत्रों आदि में "भारत सरकार की सेवा में" ही अंकित किया जाता है .सरकारी पोस्टेज स्टैम्प केंद्र तथा राज्यों के लिए समान हैं. कुछ वर्ष पूर्व तक रसीदी टिकटों पर सम्बंधित राज्य का नाम छपा होता था लेकिन अब ऐसा नहीं है.


भारत के संविधान का पहला अनुच्छेद भारत को राज्यों का संघ होना उद्घोषित करता है तथा नये राज्यों का प्रवेश या स्थापना , नये राज्यों के निर्माण तथा वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों , सीमाओं या नाम में परिवर्तन के लिए राष्ट्रपति की पूर्व सिफारिश पर कानून बनाकर लागू करने के लिए संसद को अधिकृत करता है.संविधान की पहली अनुसूची में राज्य तथा केंद्र शासित राज्य क्षेत्र वर्णित हैं तथा संसद साधारण बहुमत से इनमे कोई परिवर्तन करने के लिए स्वतंत्र है.भारतीय संविधान में यों तो एक परिसंघ संविधान के बहुत सारे लक्षण विद्यमान हैं तथा एस.आर.बोम्मई बनाम भारत संघ (१९९४ )के वाद में सुप्रीमकोर्ट ने परिसंघवाद को एक आधारिक लक्षण भी घोषित किया है लेकिन यह आदर्श परिसंघ माने जाने वाले अमेरिकी संविधान से इस मामले में फर्क है कि वहां तत्समय 13 विभिन्न देशों ने अपनी सुरक्षा अक्षुण रखने तथा कुछ अन्य अत्यंत सीमित विषयों पर कानून बनाने के लिए संविधान का निर्माण किया था .वहां राज्यों के अलग संविधान , झण्डे,राज्यगान, नागरिकता तथा कानून हैं.वहां केंद्र तथा राज्यों की कार्यपालिका तथा विधायिका ही नहीं न्यायपालिका भी अलग-अलग हैं.यह दूसरी बात है कि समय के साथ वहां केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति  आकार ले चुकी है तथा वहां के लोग अपने को संयुक्त राज्य का नागरिक बतलाने में अधिक गर्व महसूस करते हैं.


भारतीय संविधान केंद्र , राज्यों तथा केंद्र शासित क्षेत्रों के लिए प्रावधान करता है लेकिन यहाँ एकल नागरिकता है,राज्यपालों की नियुक्ति होती है तथा सिंगिल न्यायपालिका है जो संविधान तथा अन्य कानूनों का अर्थान्वयन करती है.भारत में एक राष्ट्र ध्वज, जो केसरिया,श्वेत तथा हरी पट्टियों का है तथा बीच में सारनाथ स्तूप का धर्म चक्र अंकित है जिसमे चौबीस तीलियाँ हैं . राष्ट्र ध्वज को फहराने/उतारने आदि को नियमित करने के लिए भारतीय ध्वज संहिता (२००२) है तथा इसके दुरुपयोग को रोकने/दण्डित  करने के लिए प्रतीक और नाम (अनुचित  प्रयोग निवारण ) अधिनियम ,1950 तथा राष्ट्रीय सम्मान (अपमान की रोकथाम) अधिनियम ,१९७१  क़ानून लागू हैं.संविधान में उल्लिखित मौलिक दायित्यों के अनुच्छेद 51 (क)में संविधान का पालन करने और उसके आदर्शों ; संस्थाओं; राष्ट्रध्वज और राष्ट्र गान का आदर करने का नागरिकों का पुनीत दायित्व बतलाया गया है.


राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा भारत के राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है.इस पर सभी को दिल से गर्व है और इसकी आन-बान-शान के लिए प्रत्येक देशवासी अपना सर्वस्व न्योच्छावर करने के लिए प्राणप्रण से तैयार रहता है. यह हमारी आशाओं तथा आकाक्षाओं का प्रतिबिम्ब है. भारत संघ बनाम नवीन जिंदल (2004) के वाद में सुप्रीमकोर्ट ने घोषणा की थी कि तिरंगे को फहराने का हर भारतीय को मौलिक अधिकार है.हालाँकि कई बार अति उत्साह में झण्डे के प्रयोग को लेकर दुश्वारियां भी आई हैं. १९९४ में मिस यूनिवर्स  बनी सुष्मिता सेन की बग्गी के पिछले हिस्से में तिरंगे को बांधने पर विवाद हुआ था, 2001 में मंदिरा बेदी द्वारा  तिरंगे बार्डर वाली साड़ी का प्रयोग करने तथा उसी वर्ष सचिन तेंदुलकर द्वारा  तिरंगे वाला केक काट   कर  आलोचना का शिकार हुए थे . कई फिल्मों में राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगान के प्रतिषिद्ध उपयोग पर भी लोगों की भृकुटियाँ तनी हैं. अंतर्राष्ट्रीय मैचों तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों आदि में हम अपनी ख़ुशी जाहिर करने के लिए तिरंगे को लहराकर आनंदित होते हैं.


संविधान में राज्यों को अपना अलग ध्वज रखने/बनाने की अनुमति देने का कोई प्रावधान नहीं है.राज्यों का सृजन प्रशासकीय कारणों से हुआ है तथा अनुच्छेद 355 के अनुसार संघ का यह कर्तव्य है कि वाह्य आक्रमण और आतंरिक अशांति से प्रत्येक राज्य की संरक्षा करे और प्रत्येक राज्य की सरकार का इस संविधान के उपबंधों के अनुसार चलाया जाना सुनिश्चित करे.अनुच्छेद 256 से 263 तक के अनुच्छेदों में सामान्य स्थितियों में संघ को राज्य पर नियंत्रण के विभिन्न अधिकार उल्लिखित हैं जिसमे संसद द्वारा बनायी  गयी विधियों का अनुपालन सुनिश्चित कराना, राज्य की कार्य पालिका शक्ति को संघ की तत्विश्यक शक्ति में अड़चन न बनने देना,राष्ट्रीय और जलमार्ग सहित राष्ट्रीय महत्व के संचार साधनों की देख रेख तथा रेलों का संरक्षण करना इत्यादि शामिल है.अनुच्छेद 285 से 289में अंतर शासन- कर मुक्ति के प्रावधान करता है जिसके अंतर्गत संघ या राज्य आपस में एक-दूसरें के विरुद्ध करारोपण नहीं करेंगे. इन प्रावधानों से स्पष्ट है कि संविधान राज्यों को अलग इकाई के तौर पर नहीं देखता है -उनमे सहकारिता का भाव है-स्पर्धा का नहीं. राज्य केंद्र के अभिकर्ता या उपकरण नहीं हैं तथा शक्तिशाली केंद्र की तरह शक्तिशाली राज्य भी आज की आवश्यकता हैं. ऐसी मांगों से क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थ भले ही सिद्ध हो जाएँ, देश में अलगाववाद का बीजारोपण होगा जो देश की अखंडता के लिए खतरा बन सकता है.परिसंघ हमारी राजव्यवस्था में विद्यमान है और हमें उसकी जीवंत उर्जा का अनुभव होता है 

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अनुच्छेद 1(1 ) में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है. इसे सोंच समझ कर संघ कहा गया है , परिसंघ नहीं.प्रारूपण समिति यह स्पष्ट कर देना चाहती थी कि यद्यपि भारत एक परिसंघ है, यह परिसंघ राज्यों के साथ करार का परिणाम नहीं है. राज्यों को विलग होने का अधिकार नहीं है.वे संघ से अलग नहीं हो सकते. परिसंघ नष्ट नहीं किया जा सकता है. इसीलिये वह संघ है. प्रशासन की सुविधा के लिए देश को विभिन्न राज्यों में बांटा जा सकता है किन्तु देश एक अखंड और अविभाज्य इकाई है .कर्णाटक के मुख्यमंत्री की अलग झण्डे की मांग आज भले ही निश्छल लगे लेकिन यह ऐसा पैंडोरा बाक्स साबित हो  सकता है जिसके खुलते ही राष्ट्र घाती शक्तियां सर उठाने लगेंगी .यह अनुचित , अनैतिक और संविधान के शब्दों और भावों के विरुद्ध है. इससे देश की अखंडता पर आंच आ सकती है.



केंद्र सरकार को समय रहते इसे सख्ती से दबाना चाहिए तथा संविधान के उपलब्ध प्रावधानों में प्रशासकीय आदेश निर्गत करने चाहिए जिससे भविष्य में भी ऐसी मांगे न उठें.