बारह जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीशों द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करने की घटना जितनी अप्रत्याशित है उतनी ही विस्मय कारक और दुर्भाग्य पूर्ण. वरिष्ठ जज जब विकल्प हीन हो गए तो उन्हें अपना चैम्बर छोड़ , जनता की अदालत में गुहार लगानी पड़ी. गनीमत रही कि उन्होंने मर्यादा बनाये रखी और आरोप-प्रत्यारोप की बजायविसिल-ब्लोअर तक ही अपने को सीमित रखा।
वरिष्ठ जजों के इस कृत्य पर विभिन्न प्रतिक्रियाएं आई हैं--आ रही हैं .कुछ ने सराहा , कुछ ने इसी बहाने न्यायपालिका में कथित मनमानेपन पर रोष-क्षोभ व्यक्त किया और कईयों ने इसकी जैम कर आलोचना की .इसे राजनीति से प्रेरित भी करार दिया गया .कई सीनियर वकीलों तथा पूर्व जजों ने मत व्यक्त किया कि यह आतंरिक मामला है और इसलिए कमरे में बैठ कर सुलझा लिया जाये. हरेक अपने अपने नज़रिए से आंकलन कर रहा है . अभी यह निश्चित नहीं हो पा रहा है कि जजों द्वारा उठए गए मुद्दों का कोई सम्मानजनक हल निकलेगा या यह एक ऐसे चेन रिएक्शन की शुरुआत होगी जिसमे न्यायपालिका को सामान्य जन की आलोचना-प्रत्यालोचना सहनी पड़ेगी।
यह घटना किसी सर्जिकल स्ट्राइक का परिणाम नहीं है. यह अन्दर ही अन्दर सुलग रहे एक ज्वालामुखी का विस्फोट है.जब गर्मी और धुवाँ घुटन पैदा करने लगा तो यह इस रूप में बाहर आया.न्यायपालिका से सरोकार रखने वाले कई तबकों ने इसके उन अनदिखे और अनकहे पहलुओं को रेखांकित भी किया है जो अभी तक दबे छुपे पड़े थे।
दरअसल , अप्रैल १९७३ में तीन जजों की वरिष्ठता को दरकिनार करके मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करने की घटना की यह अगली कड़ी है.उस समय बड़ा हो-हल्ला हुआ था. संसद से सड़क तक जजों के व्यक्तित्व तथा उनके सामाजिक-राजनीतिक दर्शन पर चर्चाएँ हुईं थीं . हमें याद है कि तत्कालीन एक मंत्री ने संसद में कहा था कि मुख्य न्यायाधीश के रूप में हमें FORWARD LOOKING ( प्रगतिशील दृष्टिकोण ) वाला व्यक्ति चाहिए.इस पर प्रख्यात न्यायविद पालकीवाला ने कहा इस अतिलंघन से FORWARD LOOKING नहीं बल्कि LOOKING FORWARD (अपना आगे का देखने वाला ) वाले व्यक्ति संस्था में स्थापित हो जायेंगे. संपत्ति तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों पर उच्चतर न्यायपालिका द्वारा दिए गए निर्णयों पर तत्कालीन सरकार इतनी क्षुब्ध थी किवर्षों से चली आ रही परम्परा को तोड़ कर असहज जजों को दरकिनार कर दिया गया था.इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप तीनों जजों ने इस्तीफा दे दिया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट यथावत कार्य करती रही. यहाँ एक बात का उल्लेख आवश्यक है --सुपर सीड हुए जजों को छोड़ कर एक भी जज ने न्यायपालिका की स्वायत्ता तथा स्वतंत्रता के सम्मान में या अतिलान्घित जजों के समर्थन में त्यागपत्र नहीं दिया था. क्या बाकियों की अंतरात्मा नहीं कसमसाई थी? क्या उनकी नज़र में सब ठीक हुआ था?ऐसे प्रश्न अभी अनुत्तरित ही हैं .
अतिलंघन का ही परिणाम था कि ए. डी. एम. जबलपुर बनाम शिव कान्त शुक्ल ऐसा निर्णय आया जिसमे कार्यपालिका को ब्लैंक चेक दे दी गयी. उसके बाद बयालीसवें संशोधन विधेयक द्वारा न्यायपालिका की शक्तियों को जिस प्रकार काटा-छांटा गया , वह यदि चौवालिस्वें संशोधन द्वारा वापस न लिया गया होता तो न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति नाम मात्र को ही बची होती.हालाँकि इसमें संपत्ति का अधिकार तो शहीद ही हो गया.और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को क्षीण करने के नए तरीके निकल लिए गए.
संघ तथा राज्यों में एक पार्टी की सरकार के बर्चस्व के समाप्त होते ही न्यायपालिका मुखर हुई और धीरे-धीरे नियुक्तियों तथा स्थानांतरण का अधिकार स्वयं हस्तगत कर लिया, जिससे १९७३ की पुनरावृत्ति न हो सके . लेकिन इसके बाद कतिपय जजों के खिलाफ जितने और जैसे आरोप लगे, हटाने की प्रक्रिया प्रारंभ की गयी और एक को तो अदालत की अवमानना के लिए जेल रहना पड़ा--यह किस्से कहानियां नहीं बल्कि संस्था की शुचिता पर प्रश्न चिन्ह हैं..भारत के मुख्य न्यायाधीश के विवेकाधिकार की चुनौती के सार्वजानिक हो जाने पर वे सारे किस्से चटखारे लेकर बखाने जा रहे हैं।
व्यवस्थापिका के अपने हित हैं, न्यस्त स्वार्थ हैं. यह नहीं भूलना चाहिए कि संसद तथा आधे से अधिक राज्य विधान सभाओं ने समवेत स्वर से संविधान में संशोधन करके एन.जे. ए. सी. कानून पारित किया था. इसे निरस्त तो कर दिया गया लेकिन कोई ऐसी प्रक्रिया उदभूतनहीं की सकी है जिसमे किसी रामास्वामी या करणनके लिए "नो इंट्री" का बोर्ड हमको आपको दिखाई पड़े. जैसा हर जगह है--वैसा ही भाई-भतीजा वाद वहां भी दिखलाई पद रहा है. दूसरों के लिए सूचना का अधिकार अधिनियम है लेकिन उन्हें मुक्ति चाहिए.औरों के विवेकधिकारों की न्यायिक समीक्षा हो सकती है लेकिन "माई लार्ड"की नहीं ....न्यायालय अवमानना की सुरक्षा जो है।
दरअसल १९७३ में वरिष्ठता को लेकर जो संघर्ष प्रारंभ हुआ था - बारह जनवरी की घटना उसकी तार्किक परिणित है. आरोप यही है कि बेंच बनाने तथा उसको मैटर सौंपने में मनमानी की जा रही है, महत्त्व पूर्ण मुकदमों को अपेक्षकृत कनिष्ठ जजों को दिया जा रहा है तथा वरिष्ठ जजों को हाशिये पर डाला जा रहा है. यह आतंरिक मामला न होकर एक गंभीर मामला है क्योंकि यह न्यायलय की अस्मिता,स्वतंत्रता और स्वायत्तता से जुदा है. न्याय का यह सर्व मान्य सिद्धांत है कि न्याय किया ही नहीं जाना चाहिए बल्कि किया जाता दिखना भी चाहिए. यदि इसकी रक्षा नहीं की गयी तो न्यायपालिका के स्वच्छंद होने में देर नहीं लगेगी और वह जनतंत्र के तीसर स्तम्भ के लिए ही नहींदेश के लिए भी संघातक होगी|
No comments:
Post a Comment