Wednesday, 10 October 2007

सत्याग्रह की धुंधलाती लक्ष्मण रेखा

सरकार पर सेतु समुद्रम परियोजना पर कार्य करने के लिये दबाब बनाने के इरादे से द्रुमुक द्वारा पहलीअक्टूबर को तमिलनाडु 'बंद' करने के आह्वान पर उच्चतम न्यायालय द्वारा कड़ा रुख अपनाने पर मुख्यमंत्री श्री करुणानिधि अपना उपवास तोड़ने को विवश तो हुये लेकिन हड़ताल , बन्द तथा सत्याग्रह को लेकर बहस पुनर्जीवित हो गयी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवेहेलना करते हुये एक मंत्री ने न्यायालय तथा न्यायाधीशों पर तल्ख टिप्पणी की तथा कहा कि न्यायालय से गलतियां होती हैं तथा न्यायमूर्तियों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं। मुख्यमंत्री का बचाव करते हुये एक केंद्रीय मंत्री ने उनके उपवास को सत्याग्रह की संज्ञा दी तथा स्वतंत्रता संग्राम में इस्तेमाल किये गये इस हथियार कोभारतीय परिप्रेक्ष्य में आज भी प्रासंगिक और अपेक्षित करार दिया। ज्ञातव्य है कि अन्नाद्रुमुक ने उक्त राज्यव्यापी बंद के विरुद्ध एक याचिका उच्चतम न्यायालय में दायर की थी। स्थिति की गंभीरता का संज्ञान लेते हुये न्यायालय के दो जजों की एक पीठ ने रविवार को विशेष बैठक कर बंद को असंवैधानिक करार दिया तथा राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह सुनिश्चित करे कि राज्य में बाजार ,स्कूल तथा सार्वजनिक प्रतिष्ठान खुले रहें तथा परिवहन आदि सेवायें संचालित होती रहें। अदालती आदेश की परवाह न करते हुये बंद की आधिकारिक घोषणा को निरस्त करने के बजाय श्री करुणानिधि ने स्वयं चौबीस घंटे काउपवास रखने का निर्णयलिया। पहली अक्टूबर को जब न्यायालय के संज्ञान में तथ्य लाये गये तो न्यायमूर्तियों का रोष में आना स्वाभाविकथा। अतिरेक में एक न्यायमूर्ति ने राज्य के सरकारी वकील से यह तक कह डाला कि यदि आदेशों का पालन नहीं हुआ तो राष्ट्रपति को यह अनुशंसा की जा सकती है कि तमिलनाडु में संवैधानिक तंत्र विफ़ल हो गया है तथा अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्य सरकार को बर्खास्त करने के पर्याप्त आधार हैं। हालांकि इस मौखिक टिप्पणी की वैधानिक बाध्यता नहीं मानी जाती है लेकिन इसके अपेक्षित परिणाम निकले तथा श्री करुणानिधि ने अपना उपवास बीच में ही तोड़ दिया। राजनीतिक दलों द्वारा आये दिन बन्द का आह्वान करना एक आम बात हो गयी है । अपने राजनीतिक स्वार्थ के निहितार्थ जनजीवन को बन्द के माध्यम से ठप करना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। उनका मानना है कि बंद का आह्वान संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं संघ बनाने तथा सम्मेलन करने की स्वतंत्रताका अंग है। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया बनाम भरत कुमार (1998) के वाद में इस तर्क को खारिज किया हुआ है। न्यायालय ने इसे असंवैधनिक बताते हुये निर्णीत किया है कि यह अधिकार आत्यंतिक न होकर अनुच्छेद 19(2) तथा (3) के अंतर्गत मर्यादित है। न्यायालय का कहना है कि बंद के दौरान जनसाधारण की अनेक स्वतंत्रतायें समाप्त हो जाती हैं। नागरिक घर के बाहर नही निकल सकते, अपना व्यापार नहीं कर सकते, स्वछंद विचरण नहीं कर सकते, अपना आवश्यक दैनिक कार्य नहीं कर सकते यहां तक कि वे चिकित्सा के लिये अस्पताल तक नहीं जा सकते। और तो और बन्द के दिनों में दूध तथा अखबार जैसी चीजें भी अवरुद्ध हो जाती हैं। सड़कों पर गाड़ियां नहीं चल सकतीं , रेल तथा हवाई जहाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। न्यायालय ने कहा कि ऐसे अधिकार को संवैधानिक नहीं कहा जा सकता। राजनैतिक स्वार्थ पूर्ति के लिये जन-साधारण के अधिकारों की बलि नहीं दी जा सकती। कामेश्वर सिंह बनाम स्टेट आप बिहार(1961) में प्रदर्शन तथा धरनों को विचारों की अभिव्यक्ति एक मानागया है, बशर्ते वे हिंसात्मक और उद्दन्ड न हों। चूंकि इससे विचारों का दृश्यमान निरूपण होता है , अत: ये अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत वाक एवं अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकारों के अंतर्गत सुरक्षित हैं। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं लिया जाना चाहिये कि वे मनमाने ढंग से इस अधिकार का इस्तेमाल करें। बार कौंसिल आफ इंडिया द्वारा प्रत्यायोजित वकीलों, आल इंडिया आफ मेडिकल सांइस के डाक्टरों तथा राज्य सरकार के कर्मचारियों द्वारा की जाने वाली हड़तालों को असंवैधानिक करार दिया गया है। कुछ वर्ष पहले जयललिता सरकार ने अपने राज्य के लाखों कर्मचारियों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया था। उन पर आरोप था कि उन्होंने एक अवैध हड़ताल में हिस्सा लिया था। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के कदम को उचित ठहराया था लेकिन मानवीय आधार उन कर्मचारियों वापस लेने का अनुरोध किया था जिनके विरुद्ध हिंसा का चार्ज नहीं था तथा जो अपने कृत्य पर पछतावा करने का लिखित माफ़ीनामा देने को तैयार थे। पिछले कई वर्षों से राज्य सरकारों द्वारा प्रत्यायोजित बंदों का प्रचलन शुरू हुआ है। केरल व पश्चिम बंगाल से प्रारम्भ होकर उत्तर-प्रदेश, बिहार, उत्तर-पूर्वी राज्यों तथा अब तमिलनाडु तक फ़ैलते जा रहे इस रोग पर लगाम लगाने के लिये सुप्रीम कोर्ट की सराहना हुई है।बन्द का विरोध करने वालों की खुले आम धुनाई , बेइज्जती तथा सामान लूटने की घटनाओं से लोग डरे रहते हैं तथा घर में ही बंद रहना सुरक्षित समझते हैं। इससे अर्थव्यवस्था पर तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ता ही है, रोगियों , वादकारियों तथा नौकरी के लिये जा रहे लोगों को मन मसोसना पड़ता है। इन बंदों के दौरान हिंसा का बोलबाला रहता है तथा जनसामान्य न चाहते हुये भी इसका विरोध करने का साहस नहीं उठा पाता। गांधीजी का सत्याग्रह भिन्न परिस्थितियों में एक विदेशी शासन के विरुद्ध होता था। वे अपने ध्येय की पवित्रता को सिद्ध करने के लिये आत्मपरिष्कार हेतु उपवास रखते थे। उनके इस हथियार के सामने शक्तिशाली भी नतमस्तक होता था। स्वतंत्र भारत में अब वह स्थिति नहीं है। राज्य में शासनारूढ़ तथा केंन्द्र सरकार का एक प्रमुख घटक होने के बावजूद यदि कोई दल अपनी बातें मनवाने के लिये संविधानेत्तर उपायों का सहारा लेता है तो उसकी राजनैतिक शुचिता और ईमानदारी पर उंगली उठना स्वाभाविक है। ऐसे दुराग्रह पर जनचेतना विकसित करने का समय है क्योंकि गांधी के सत्याग्रह के मर्म को सही परिप्रेक्ष्य में लागू करके ही भारतीय जनमानस के हृदय में स्थान पाया जा सकता है।

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