Wednesday 10 October 2007

राजसुख बरास्ते दैवी कृत्य

[यदि किसी व्यक्ति के चरित्र का परीक्षण करना हो तो उसे शक्ति दे दें। शक्ति होने के बावजूद फिसलन तथा स्खलन न हो, तभीवह चरित्रवान तथा शक्तिवान है। -अब्राहिम लिंकन] भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा कतिपय उच्च न्यायालयों के जजों तथा मुखिया जजों के अभी हाल में किये गये तबादलों पर उठे यक्ष प्रश्नों का जबाब मिलना शेष था कि कलकत्ता उच्चन्यायालय के अवकाश प्राप्त जस्टिस बी.पी.मुखर्जी द्वारा कार्यकाल के दौरान सांसारिक सुखों की खातिर न्यायिक तथा दैवी दायित्वों के साथ समझौते के समाचार ने सनसनी ही नहीं फ़ैलायी वरन न्यायपालिका के प्रति आम लोगों की आस्था को ही चटका दिया। वर्तमान राजनैतिक स्थिति में न्यायपालिका के प्रति थोड़ी बहुत श्रद्धा और सम्मान बचा है लेकिन ऐसे समाचार से जनतंत्र और विधि शासन के प्रति प्रतिबद्धता का आइना दरक कर किरच-किरच होता दिख रहा है। उच्चतम न्यायालय के एक नवीनतम निर्णय में इस बात का खुलासा हुआ कि उक्त जज ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोटे से आवंटित जमीन पर अपने रहने के लिये आलीशान भवन बनवाया है। कहा जाता है कि उक्त जज ने प्राइम लोकेशन की यह भूमि औने-पौने दाम पर तब प्राप्त की थी जब वे जज की हैसियत से मुख्यमंत्री के कोटे से अवैध, असंवैधानिक,स्वैच्छाचारी, द्वेषपूर्ण, मनमाने तथा पक्षपात पूर्ण भूमि आवंटन के खिलाफ़ एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रहे थे। उच्चतम न्यायालय ने यह आवंटन अवैध घोषित कर आदेश दिया है कि इस भवन की नीलामी कर दी जाये । सम्बंधित जज से यह अपेक्षा की है कि वह नीलामी हो जाने के एक सप्ताह के भीतर मकान खाली कर दे। देखना यह है कि इस नीलामी में कितने लोग बोली लगाने का साहस जुटा पाते हैं। जस्टिस एस.एन.वरियावा एवं एच.के.सेमा की एक खण्डपीठ ने अपने हाल के इस निर्णय में संप्रेक्षित किया है कि न्यायाधीश के लिये कुछ पाने की इच्छा रखने में कोई नुकसान नहीं है लेकिन सांसारिक जगत की इच्छायें उसे भीरु तथा कायर बना देती हैं। खण्डपीठ ने अपने निर्णय में अभिनिर्धारित किया है कि आरोपी जज ने सस्ती दर पर सरकारी जमीन पाने के लिये अपने दैवी कृत्य अर्थात न्यायिक दायित्व तथा मर्यादा के साथ समझौता किया। उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले तथा टिप्पणी पर अपनी क्षोभ तथा रोषपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये जस्टिस बनर्जी ने कहा कि इससे उनकी इज्जत पर ऐसा धब्बा लगा है कि वे किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे हैं। उनके बचाव में उतरे श्री सोमनाथ चटर्जी ने एक वकील की हैसियत से बोलते हुये कहा है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बसु का जस्टिस बनर्जी से कोई परिचय नहीं था तथा आवंटन सामान्य प्रकिया का अंग था। उन्होंने पुनर्विलोकन याचिका दाखिल करने की भी बात कही है। न्यायाधीशों को सरकारी सुख-सुविधाऒं तथा लाभ लेना कोई नयी बात नहीं है। अभी अधिक दिन नहीं बीते जब रक्षा सौदों से जुड़े 'तलहका' कांड की जांच कर रहे जस्टिस के वेंकटस्वामी को सीमा शुल्क पर अग्रिम निर्देश प्राधिकरण के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति हुई थी। नियुक्ति के प्रकाश में आने के बाद उनको दोनों पदों से इस्तीफ़ा देने को मजबूर होना पड़ा था। तत्समय विपक्षी सदस्यों का कहना था कि 'तहलका' जांच प्रभावित करने की नियत से न्यायमूर्ति को सरकारी लाभ का झुनझुना पकड़ाया गया है। जस्टिस वेंकटस्वामी के त्यागपत्र से न्यायपालिका की शुचिता, पवित्रता, स्वाधीनता तथा निष्पक्षता पर कई सवाल एक साथ उठ खड़े हुये थे। इनका कोई सर्वमान्य हल खोजा जाता इससे पूर्व दैवी कृत्य तथा राज्य सत्ता के द्वन्द में राज्यसत्ता की निर्णायक खिलखिलाहट फिर सुनाई दी है। विगत वर्षों में न्यायाधीशों के विरुद्ध ऐसे आरोपों की बाढ़ आ गयी है। उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश जस्टिस रामास्वामी के विरुद्ध भारत सरकार के महालेखाकार ने विपरीत टिप्पणी की थी। उनके खिलाफ़ आरोप था कि उन्होंने सरकारी फ़र्नीचर अपने घर भिजवा दिया, लाखों रुपये की व्यक्तिगत एस.टी.डी. कालें सरकारी फोन के जरिये की तथा तमिलनाडु स्थित अपने परिवार से बार-बार मिलने के लिये हवाई यात्रा का टी.ए./डी.ए. सरकारी खजाने से लिया। सरकारे सुविधाऒं का व्यक्तिगत कार्यों के लिये इस्तेमाल करने आदि के लिये उन पर महाभियोग चलाया गया था लेकिन वह असफ़ल रहा। अभी हाल में पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के तीन जजों के विरुद्ध अपने पाल्यों को पंजाब लोक सेवा आयोग द्वारा अनुचित साधन अपना कर नियुक्ति दिलाने के आरोप की अनुगूंज होती रही। यह वे प्रकरण हैं जो प्रकाश में आ गये लेकिन यह वह बर्फ़ है जो पानी के ऊपर दिखलाई पड़ रही है। न्यायिक कदाचार के किस्से और भी हैं । न्यायालय की अवमानना के डर से सिर्फ़ वही प्रकरण जाहिर हो पाते हैं जिनको सिद्ध करने के पुख्ता प्रमाण होते हैं। प्रतिनिधि लोकतंत्र में न्यायपालिका का विशिष्ट महत्व होता है क्योंकि वहां नागरिकों के अधिकारों तथा हितों का विनिश्चय होता है और इस बात की आवश्यकता होती है कि कार्यपालिका या विधायिका के हस्तक्षेप से उनकी रक्षा की जाय। इसी हेतुसंविधान द्वारा न्यायपालिका को सरकार के दो अन्य अंगों से स्वाधीन और सर्वोच्च बना दिया गया है। संघात्मक राज व्यवस्था, मूल अधिकारों को सुनिश्चित करने तथा लोकतंत्र की सुरक्षा के लिये भी स्वतंत्र, निर्भीक तथा निष्पक्ष न्यायपालिका एक अनिवार्य अपेक्षा है। केवल एक स्वाधीन व स्वावलंबी न्यायपालिका ही नागरिकों तथा संविधान के अधिकारों के अभिभावक के रूप में प्रभावशाली ढंग से कार्य कर सकती है। इसी स्वाधीनता, स्वतंत्रता और स्वायत्तता को सुनिश्चित करने के लिये भारत के संविधान में न्यायधीशों की नियुक्ति, उन्हें हटाये जाने तथा उनके कार्यकाल की सुरक्षा आदि के बारे में प्रावधान किये गये हैं। राज्य के नीतिनिर्देशक तत्वों के अनुच्छेद 50 में राज्य से यह अपेक्षा की गयी है कि वह कार्यपालिका से न्यायपालिका को पृथक करने के लिये कदम उठायेगा। इन प्रावधानों का निर्वचन करते हुये न्यायपालिका ने धीरे-धीरे स्वायत्तता हासिल कर ली है। अनुच्छेद 124 में न्यायाधीशों की नियुक्ति से पूर्व राष्ट्रपति से यह अपेक्षित है कि वह भारत के मुख्य न्यायाधीश से 'परामर्श' करे। उच्चतम न्यायालय का पूर्व में मत था कि 'परामर्श' का अर्थ सहमति नहीं है। लेकिन बाद में यह अभिनिर्धारित किया कि किसी भी न्यायाधीश की नियुक्ति में उसकी राय सर्वोपरि होगी। नियुक्ति में परामर्श देने से पूर्व मुख्य न्यायाधीश अपने अधीनस्थ चार वरिष्ठ न्यायाधीशों से सहायता लेंगे। सांविधानिक स्थिति यह हो गयी है कि जजों की नियुक्ति, प्रतिस्थापन तथा स्थानांतरण में कार्यपालिका का दखल नाम मात्र का रह गया है और न्यायपालिका ने सारी शक्ति स्वयं में केंद्रित कर ली है। न्यायपालिका ने अपने को कार्यपालिका के प्रभाव से मुक्त तो कर लिया है लेकिन राजकीय सुख और सांसारिक मायामोह से अपने को नहीं बचा पायी। कोठी,टेलीफोन,शोफ़र वाली झंडा लगी कार तथा कलगी लगाये दरबान का सामंती मोह यदि अपने 'दैवी कृत्य' से समझौता करने को उकसाता है तो कुछ विशेष नहीं। न्यायाधीश के पद से अवकाश लेने के बाद कुछ भाग्यशाली लोग उपराष्ट्रपति तथा सांसद-विधायक बन गये। कइयों ने राष्ट्रपति पद पर चुने जाने की महात्वाकांक्षा का इजहार खुले आम किया लेकिन सफ़ल नहीं हो पाये। अधिवर्षिता के पश्चात सरकारी नियुक्तियां हथियाने की होड़ लगी हुयी है। एक आम नागरिक यह सोचने को विवश है कि न्याय की देवी की आंखों में बंधी पट्टी से भी कुछ देखा जा रहा है। सन 1973 में हुये तीन न्यायाधीशों के अतिलंघन तथा अपेक्षाकृत कनिष्ठ न्यायाधीश को भारत के मुख्यन्यायाधीश पद पर नियुक्त करने को लेकर खासा विवाद हुआ था। अपने कृत्य को न्यायोचित ठहराते हुये तत्कालीन न्यायाधीशों ने कहा कि इससे 'प्रगतिशील तथा दूरन्देशी'व्यक्ति को नियुक्ति के द्वार खुलेंगे। इस पर शंका जाहिर करते हुये प्रख्यात न्यायविद नानी पालकीवाला ने कहा था कि इससे "दूर की देखने वाला" नहीं बल्कि "अपने आगे का देखने वाला" बाजी मार ले जायेगा। आज वह डर सच में बदल गया है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राज्यों में स्थापित मानवाधिका आयोग ,पिछड़ी जातियों के लिये बने राष्ट्रीय आयोग,एकाधिकार एवं अवरोधक व्यापारिक व्यवहार आयोग,राष्ट्रीय उपभोक्ता संरक्षण आयोग, लोकपाल आयोग, लोकपाल, लोकायुक्त, केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण, प्रेस आयोग, विधि आयोग,प्रतिलिप्पधिकार आयोग, आदि तमाम आयोगों में अध्यक्ष/सदस्य हेतु उच्चतम/उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होना या योग्यता रखना आवश्यक अहर्ता निर्धरित है। इनके कार्यकाल की आयु भी इस प्रकार से निर्धारित की गयी है कि रिटायरमेंट के बाद कम से कम पांच वर्ष 'सेवा' का अवसर मिल जाय। इनके अतिरिक्त विभिन्न जांच आयोगों, नियामक आयोगों, समितियों आदि में इनकी नियुक्तियां की जाती हैं। विभिन्न अधिनियमों में इन नियुक्तियों से पूर्व भारत के मुख्य न्यायाधीश या राज्य उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से 'परामर्श' का प्रावधान है। किन आधारों पर यह परामर्श किया जाता है यह अवधारित नहीं है। जहां तक न्यायव्यवस्था से संबंधित पद हैं वहां तो मुख्य न्यायाधीश सलाह देने में सक्षम हो सकते हैं, लेकिन व्यवस्थापिका में लाभ वाले पदों हेतु उपयुक्तता कैसे निर्धारित होगी? स्वाभाविक है कि इन न्यायाधीशों की रुचि ऐसी नियुक्तियां हस्तगत करने में रहेगी जिससे रुतबा और रुआब कायम रहे। एक सामान्य ज्ञान-विवेक व प्रज्ञा का व्यक्ति यदि अपने तथा अपने बच्चों के भविष्य तथा सांसारिक व्यामोह में बंधकर अपनी आत्मा की आवाज की अनसुनी कर कुछ समझौता परक व्यवहार करे तो उसमें अचरज क्या है? न्यायाधीशों की सेवा शर्तें पहले से ही काफ़ी आकर्षक हैं। उनकी उन्मुक्तियां तथा विशेषाधिकार भी कम नहीं हैं। लेकिन वरिष्ट नौकरशाहों,सांसदों तथा विधायकों आदि से जुड़ा वैभव, प्रभामंडल तथा चकाचौंध इनमें शायद हीनग्रंथि सृजित करता है।स्वतंत्रता की अर्ध शताब्दी के बीत जाने के बाद भी दरिद्र नारायणों के प्रति हम सहानुभूति और दायित्व-निर्वहन में सुखानुभूति नहीं प्राप्त कर सके। पद की गरिमा,न्यायनीति की शुचिता तथा कठोर स्व-अनुशासन अभी दिवास्वप्न ही है। जस्टिस बनर्जी के फ़ैसले में अब्राहम लिंकन का यह कथन उद्धत किया गया है जिसमें उन्होंने कहा था कि लगभग प्रत्येक व्यक्ति विषम परिस्थितियों में भी खड़ा रह सकता है लेकिन यदि किसी व्यक्ति के चरित्र का परीक्षण करना हो तो उसे शक्ति दे दें। शक्ति होने के बावजूद फिसलन तथा स्खलन न हो, तभीवह चरित्रवान तथा शक्तिवान है। न्यायपालिका को भी अंतर्मंथन कर सोचना होगा कि जितनी शक्ति उसने ले ली है,क्या वह उसके भार से आक्रांत हो गयी है तथा उसके पग इसी कारण तो डावांडोल नहीं हो रहे हैं? शक्ति के संतुलन और सामंजस्य के लिये उसे अंदर से नैतिक रूप से बलिष्ठ होना अनिवार्य है। इसको पाने तथा बनाये रखने के लिये कानून में प्रावधान नहीं बल्कि सर्वशक्तिमान की अनुकम्पा की आवश्यकता होती है और वह उन्हीं को मिलती है जो स्वयं को भूलकर निर्मल और स्वच्छ हृदय से इंसानियत से प्रेम करते हैं।

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