बिहार के भागलपुर में चेन खींचने वाले एक कथित चोर को बुरी तरह मारने-पीटने तथा पुलिस वालों द्वारा मोटर साइकिल में बांधकर उसे कच्ची सड़क पर दूर तक घसीटने की लोमहर्षक घटना की तस्वीरें अभी भूलीं भी नहीं थीं कि वैशाली जिले के दिलपुरवा गांव में दिल दहला देने वाली एक और घटना में दस लोगों को पीट-पीटकर मार डाला गया। इन लोगों पर चोरी करने का शक था। बताया गया है कि इस गांव में पिछले कुछ दिनों से चोरियां बढ़ गयीं थीं। पुलिस से शिकायत करने से भी कुछ हासिल नहीं हुआ इसलिये गांव के लोगों ने रतजगा कर स्वयं पहरेदारी की पहल की। घटना वाले दिन भोर पहर दस-बारह लोग संदिग्ध अवस्थी में देखे गये जो ललकारने पर इधर-उधर छिपने लगे। आनन-फ़ानन में एकत्र हुई भीड़ ने उनको इतना पीटा कि उनमें से दस लोगों की मौके पर ही मौत हो गई। पुलिस ने तीन सौ अज्ञात लोगों के खिलाफ़ मुकदमा दर्ज करने की कवायद तो की लेकिन इनकी लाशों को नदी में फ़िकवा दिया। और इतने मात्र से ही शायद तस्वीर पूरी नहीं हो रही थी कि सीतामढ़ी जिले में मूर्तिचोरी के आरोप में राकेश नामक एक व्यक्ति को पीट-पीट कर मार डाला गया। इस व्यक्ति को किसी ने चोरी करते नहीं पकड़ा था बल्कि एक तांत्रिक ओझा ने अपनी 'चमत्कारी' शक्ति से बताया था कि चोर का नाम राजेश है। इस नाम का कोई व्यक्ति नहीं मिला लेकिन राकीश कुमार हत्थे आ गया। बस उसी को चोर मान कर मार डाला गया। पुलिस जब हत्यारों को पकड़ने गयी तो उसे गांव वालों के विरोध का सामना करना पड़ा।
कानून हाथ में लेने तथा दोषियों के साथ कबीलाई अंदाज में इंसाफ़ करने का बिहार में अपना इतिहास है तथा अक्सर ऐसी दास्तानें देखने सुनने को मिलती रहती हैं। अस्सी के दसक में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गयी थी जिसमें भागलपुर इलाके में चोरी के इल्जाम में बंद अपराधियों की आंख में तेजाब डाल कर सूजे से फोड़ने का सनसनीखेज आरोप लगाया गया था जो जांच के बाद सही मिला था। रोंगटे खड़े कर देने वाली इस सुप्रीम कोर्ट की फ़टकार के बाद कुछ पुलिस वालों पर कार्यवाही हुयी तथा मुवावजा वगैरह दिया गया लेकिन बर्बरता के किस्से बदस्तूर जारी रहे। पंजाब में भी जेब काटने के जुर्म में पकड़ी गयी औरतों के माथे पर "मै जेबकतरी हूं" गुदवा दिया गया था। इसमें पुलिस भी शरीक पायी गयी थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आल इंडिया मेडिकल साइंस संस्थान में प्लास्टिक सर्जरी करके इनके माथे का कलंक हटाया गया। लेकिन त्वचा पर निशान नहीं मिटे।
छोटी-मोटी चोरी, जेबकटी, जुआं खेलने, लड़कियों को छेड़ने, बालकों से समलैंगिक संबंध बनाने आदि के आरोपों में रंगे हाथ पकड़े गये लोगों के सिर मुड़वाकर तथा गधे पर बैठाकर गांव-गली का चक्कर लगवाने के किस्से अखबारों की सुर्खियां बनते हैं। वैलेन्टाइन दिवस आदि के अवसरों पर नैतिक-पुलिस करते हुये कुछ संगठन ऐसे युगलों को मुर्गा बनाने तथा कान पक़ड़कर उठा-बैठक कराने की कवायद करते हैं। कई बार इनकी आडियो-वीडियो क्लिपिंग टीवी पर देखने को मिलती हैं। यहां तक तो फिर भी गनीमत है। इधर हाल के वर्षों में जातीय पंचायतों द्वारा प्रेमी-जोड़ों को जान से मारने के फ़रमान निकले हैंतथा उन पर अमल हुआ है। इनका दुखद तथा आश्चर्य करने वाला पहलू यह भी है कि अक्सर पुलिस तथा सुरक्षा एजेन्सियां सूचित होने के बावजूद मूक दर्शक बनी रहती हैं।
भारतीय दंड संहिता में विभिन्न अपराध परिभाषित किये गये हैं। इसी में उनके लिये सजा भी निर्धारित की गयी है। अपराधी को सजा देने के लिये तंत्र विकसित किया गया है तथा इस हेतु मार्गदर्शक सिद्धान्त है कि अपराधी के दुराशय पूर्ण कृत्य को सन्देह से परे सिद्ध किया जाना चाहिये। यह भी कहा जाता है कि किसी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिये तथा जब तक अंतिम तथा निश्चित तौर पर सिद्ध न हो जाये तब तक किसी को अपराधी नहीं कहना चाहिये। आपराधिक विधि के यह सिद्धान्त इस लिये कड़ाई से पालन किये जाते हैं क्योंकि अपराध को व्यक्ति विशेष के विरुद्ध नहीं बल्कि सारे समाज के विरुद्ध माना और लिया जाता है। किसी व्यक्ति पर अपराधी का लेबल लगने से न केवल उसका मान-सम्मान समाप्त होता है बल्कि उसकी पीढि़यां भी इस दंश से बच नहीं पाती हैं।
अपराधी को पकड़कर कानून के हवाले करने का दायित्व प्रत्येक नागरिक का है। ऐसा करते हुये यदि हिंसा होती है तो वह भी क्षम्य है लेकिन कानून की परवाह न करते हुये तथा सिर्फ़ शक की बिना पर किसी को दण्ड देना या मार डालना अपने आप में एक जघन्य आपराधिक कृत्य है तथा ऐसे लोग जान-बूझकर की गयी हत्या के दोषी हैं। अपनी जान-माल की रक्षा करने का हक सभी को है तथा इसके लिये आवश्यक बल प्रयोग की भी छूट है लेकिन इन सब की मर्यादा और सीमायें हैं।
कानून व्यवस्था बनाये रहना पुलिस प्रशासन का महती दायित्व है। इसमें जब ढील आती है तो लोग कानून अपने हाथ में लेने को विवश होते हैं तथा वैज्ञानिक और तार्किक ढंग से काम करने की बजाय भीड़ तंत्र की भावना में बहने लगते हैं। मानव जीवन तथा मूल्य गौण हो जाते हैं तथा बहशियाना ढंग से पेश आने के कारण अपराधी को सजा देते-देते खुद अपराधी बन जाते हैं। कानून व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों के लिये ऐसी घटनायें समय रहते जाग जाने की चेतावनी हैं ,नहीं तो कानून के बजाय जंगल राज अब बहुत दूर नहीं है।
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