Sunday, 29 April 2018

मौलिक अधिकारों में द्वन्द और लोकनीति की कशमकश




आधार अधिनियम ,२०१६ की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका में संघ सरकार का पक्ष रखते हुए महान्यायवादी के. के. वेणुगोपाल ने सुप्रीमकोर्ट में कहा कि निजता के मौलिक अधिकार तथा भूख,दरिद्रता व बेजारी रहित जीवन यापन के मौलिक अधिकार में यदि द्वन्द हो तो बाद वाले अधिकार को प्रश्ययदेना होगा. वेणुगोपाल का तर्क है कि अमेरिकन सुप्रीमकोर्ट ने १८७६ में मन बनाम इलिनायेस में प्राण तथा दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का निर्वचन करते हुए कहा था कि इसके अंतर्गत मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है और जीवन के वे सब आयाम हैं जिनसे मनुष्य का जीवन सार्थक ,सम्पूर्ण और जीने के योग्य बनता है.महान्यायवादी ने आधार (वित्तीय और अन्य सहायिकियों,प्रसुविधावों और सेवावों का लक्षियत परिणाम )अधिनियम ,२०१६ के पक्ष में दलील देते हुए कहा की भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित प्राण के अर्थ केवल पशुवत अस्तित्व या जीवित रहना नहींहै बल्कि मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है जिसमे रोटी,कपड़ा और मकानके साथ रोज़गार का अधिकार शामिल है.उनका कहना था कि विशेष पहचान संख्या के ज़रिये लोगों को सब्सिडी , लाभों और सेवाओं का कुशल और पारदर्शी वितरण सुनिश्चित हो सकेगा और इसके लिए यदि नागरिकों को अपने अधिकार पर निर्बन्धन सहना पड़े तो वह वर्तमान स्थिति में अनुमन्य होना चाहिए. वैसे भी कोई अधिकार आत्यंतिक नहीं होता और समय काल के अनुसार उस पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं.जब दो मौलिक अधिकारों में टकराव या संघर्ष हो तो उस मौलिक अधिकार को तरजीह दी जानी चाहिए जिसमे लोक कल्याण की नीति हो .


अभी हाल में जस्टिस पुत्तुस्वामी के बहुचर्चित वाद में सुप्रीमकोर्ट की नौ सदस्यीय पीठ ने निजता के अधिकार को मौलिक माना है. आधार पहचान संख्या के लिए उँगलियों तथा आँख की पुतलिओं की छाप लिए जाने को निजता के अधिकार का उल्लंघन करार देते हुए दायर की गयी याचिका  का विरोध करते हुए महान्यायवादी ने अधिनियम द्वारा दी जाने वाली सहायता,सब्सिडी और सेवाओं  को अधिक महत्वपूर्ण मानते हुए अपने तर्क दिए हैं


मौलिक अधिकारों में टकराव में बृहत्तर  लोकनीति को तरजीह देने का यह पहला मामला नहीं है . मुसलमानों में तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करते हुए पुरुषों के धार्मिक स्वतंत्रता  के मौलिक अधिकार तथा स्त्रियों के गरिमा के साथ जीवन यापन के मौलिक अधिकार  के मध्य संघर्ष की स्थिति में महिलाओं के हक़ को प्राथमिकता दी गयी है,क्योंकि तीन तलाक़ का अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही प्राप्त है जो समानता के अधिकार का स्पष्ट अतिक्रमण है.इसी प्रकार हिन्दू विवाह अधिनियम की वैवाहिक संबन्धों की पुनर्स्थापना वाली धारा 9 को भी पति-पत्नी , दोनों,के निजता के अधिकार का उल्लंघन  करने वाला बतलाया गया था लेकिन कुटुंब  विशेषकर बच्चों के लालन पालन के मौलिक अधिकार को प्राथमिकता दी गयी है.सड़क पर नरमुंडों के साथ नाचने-गाने के धर्म के मौलिक अधिकार पर आम जनता विशेषकर स्त्रियों में उत्पन्न होने वाले भय से मुक्ति के अधिकार को तरजीह दी गयी . इसी प्रकार रात में दस बजे से सुबह छह बजे तक लावुडस्पीकर पर धार्मिकता के विभिन्न कार्यक्रमों पर रोक लगाने के नियम को वैध निर्धारित करते हुए   छात्रों, बुजुर्गों और बीमार व्यक्तियों  के शांतिपूर्ण सोने के अधिकार को प्राथमिकता दी गयी है.
मौलिक अधिकारों के मध्य भिड़न्त का क्लासिक वाद मिस्टर एक्स. बनाम जेड. हॉस्पिटल (१९८८ )का है जिसमे अनुच्छेद 19 (1 )(क ) के द्वारा आच्छादित एकान्तता के अधिकार और जानकारी प्राप्त करने के अधिकार के मध्य टक्कर थी.दरअसल एक युवा डॉक्टर की एच आई वी संक्रमित होने की पैथालोजी रिपोर्ट उजागर हो गयी थी तथा इसी कारण उसकी होने वाली वधू ने विवाह करने से इंकार कर दिया था. एड्स से पीड़ित होने के कारण उसे अपनी नौकरी में भी असह्यजता झेलनी पड़ी थी. सुप्रीमकोर्ट ने निर्णय देते हुए कहा था कि जहाँ तक पुरुष को ऐसी जानकारी गोपनीय रखने का मौलिक अधिकार था वहीँ उस स्त्री को यह जानने का भी मौलिक अधिकार था कि उसका होने वाला पति एड्स ऐसे संचारी रोग से पीड़ित तो नहीं है? इन दोनों के मौलिक अधिकारों में संघर्ष की स्थिति में स्त्री का अधिकार प्राथमिकता पायेगा क्योंकि इसमें जनहित शामिल है .यदि बिना जानकारी के ऐसा विवाह हो जाये तो इससे आगे होने वाली पीढ़ी के भी ग्रसित होने का खतरा है.अतः पैथालोजी को जानकारी उजागर करने के लिए दायित्वाधीन नहीं ठहराया जा सकता है.
मौलिक अधिकारों में मुठभेड़ का रोचक मुकदमा  महाराष्ट्र राज्य बनाम इंडियन होटल एंड रेस्टोरेंट्स संघ (२०१३ ) भी है जिसे बाम्बे बार डांस केस के नाम से भी जाना जाता है. महाराष्ट्र  सरकार ने क़ानून बनाकर शराबखानों में डांस करने पर पाबंदी लगा दी थी.इसके औचित्य को सिद्ध करते हुए राज्य सरकार की ओर से कहा गया कि यह डांस अश्लील होते हैं,वैश्यावृत्ति को उकसाते हैं और कामुकता फैलाते हैं. इसके विपरीत होटल मालिकों तथा बार बालाओं के द्वारा कहा गया कि उन्हें रोज़गार करने का मौलिक अधिकार है.विभिन्न पहलुओं पर निर्णय देते हुए सुप्रीमकोर्ट ने अभिनिर्धारित किया था कि सड़कों पर भीख मांगने या अस्वीकार्य माध्यम के द्वारा रोज़गार पाने की तुलना में डांस करके जीवन यापन गुजारना कहीं अधिक श्रेयस्कर है. शीर्ष अदालत का कहना था कि बार बालाओं को जीवन यापन तथा/या पुनर्वास का अधिकार है और यदि राज्य इनकी व्यवस्था नहीं कर पाता तो बार में डांस करने से रोकना अनुचित है. 


एन.डी.तिवारी  बनाम रोहित शेखर (२०१२) में एक पिता-पुत्र के बीच प्रतिष्ठा के मौलिक अधिकारों का द्वन्द था. रोहित शेखर अपने को एन.डी.तिवारी का पुत्र मानता था तथा पितृत्व की पुष्टि के लिए अपने पिता के रक्त के नमूने की मांग कर रहा था जिससे डी. एन. ए. टेस्ट कराया जा सके.उसका कहना था कि पिता का नाम निर्धारण उसके प्रतिष्ठा के अधिकार में शामिल है जबकि तिवारी का तर्क था कि उन्हें रक्त सैम्पुल देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता क्योंकि यह उनकी निजता तथा नेकनामी के अधिकार का अतिक्रमण होगा अर्थात पिता-पुत्र दोनों ही अपनी प्रतिष्ठा तथा नेकनामी के अधिकारों का दावा कर रहे थे. न्यायालय ने पुत्र के अधिकार को अधिक शक्तिशाली पाया क्योंकि इससे उसकी समाज में प्रास्थिति स्थापित होती है जो लोक नीति के अनुरूप है.


चुनाव लड़ने वाले अभ्यर्थियों के लिए परचा भरते समय अपनी शयक्षित योग्यता, अस्तियों तथा दायित्यों का विवरण तथा खिलाफ चल रहे आपराधिक मुकदमों का शपथपत्र अनिवार्य करने के सुप्रीमकोर्ट के निर्णय के समय भी अभ्यर्थी की निजता तथा नागरिकों के अपने होने वाले प्रतिनिधि के बारे में जानकारी प्राप्त करने के मौलिक अधिकारों में धर्मसंकट के प्रश्न थे लेकिन शीर्ष न्यायालय ने पी.यू.सी.एल. बनाम भारत संघ (२००३) में जानकारी के अधिकार को लोकहित में प्राथमिकता पूर्ण  माना था तथा लोक प्रतिनिधित्व कानून में आवश्यक संशोधन करने का निर्देश दिया था.


दरअसल, मौलिक अधिकारों में द्वन्द के प्रश्न संविधानिक दुविधा से उदभूत हैं जब अधिकारों में सामंजस्य/ संतुलन करते हुए उनमें स्पर्धा तथा/या असमंजस के अंश प्रस्फुटित होते हैं.वाक स्वतंत्रता तथा निजता,समता तथा भेदभाव एवं धार्मिक स्वतंत्रता बनाम स्त्रियों के अधिकारों के मध्य ऐसे टकरावों के प्रकरण न्यायालय की दहलीज पर गए हैं. विधि के सिद्धांतों तथा संविधानिक दर्शन के मध्य संतुलन आसान नहीं है और यह तब और भी मुश्किल है जब एक ही पटल पर विपरीत ध्रुव के अधिकारों का दावा किया जाये. लोकनीति एक फिसलन भरी राह है तथा समय,काल तथा परिवेश में बदलती रहती है. किसी स्थिति विशेष में एक को प्राथमिकता देकर दूसरे को अधीनस्थ किया जा सकता है,लेकिन एक सर्वमान्य तथा तार्किक हल असंभव नहीं तो दुरूह अवश्य है.लेकिन इससे निराश होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जब हम यह जान जाते हैं कि इन अधिकारों में वास्तविक द्वन्द क्या है तब हमें निश्चयात्मक निर्णय पर पहुँचने में देर नहीं लगती. जनतंत्र में मानवाधिकारों तथा मौलिक अधिकारों के बढते कैनवास को संविधान में आत्मसात करने के लिए न्यायपालिका ने अर्थान्वयन के नये सिद्धांत प्रतिपादित कर लिए हैं और यह एक स्वागत योग्य कदम है.

डा. निरुपमा अशोक
प्राचार्य, भगवानदीन आर्य कन्या महाविद्यालय , लखीमपुर खीरी (उ०प्र०)

Tuesday, 17 April 2018

केरल अध्यादेश पर रोक से उपजे साख,औचित्य तथा साम्विधानिकता के प्रश्न!





अभी हाल में सुप्रीमकोर्ट ने  केरल सरकार द्वारा प्रख्यापित केरल प्राइवेट कॉलेज ( रेगुलेशन ऑफ़ एड्मिसन इन मेडिकल कॉलेज ) अध्यादेश, २०१७  पर स्थगन आदेश देकर इसके क्रियान्वयन पर रोक लगा दी है. सत्र २०१६-१७ में राज्य के कुछ प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों ने विधि विरुद्ध प्रवेश किये थे जिसे भारतीय आयुष परिषद् की प्रवेश अधिवीक्षण समिति ने निरस्त कर दिया था. केरल हाईकोर्ट नें भी इन प्रवेशों को कानून सम्मत नहीँ मना था तथा अपील में सुप्रीमकोर्ट  ने भी हाईकोर्ट के निर्णय पर मोहर लगा दी थी. लेकिन उच्चतर न्यायपालिका के स्पष्ट निर्णयों को दरकिनार करते हुए राज्य सरकार ने राज्यपाल के हस्ताक्षरों से उक्त अध्यादेश जारी कर दिया जिसको असाम्विधानिक मानते हुए सुप्रीमकोर्ट की खंड पीठ ने रोक लगा दी है.ज्ञातव्य है कि केरल में इस समय भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सथासिवम राज्यपाल हैं.विधि से सरोकार रखने वाले क्षेत्रोंमें आश्चर्य मिश्रित प्रतिक्रिया है कि मुख्य न्यायाधीश रहे राज्यपाल ने ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने से पूर्व विधिक स्थिति की पूरी जानकारी क्यों नहीं ली ?


सांविधानिक भटकाव की यह पहली घटना नहीं है.तमिलनाडु की राज्यपाल रही जस्टिस फातिमा बीवी को भी २००१में जयललिता को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के कारण विवाद हुआ था जिसकी परिणित अंततः उनके इस्तीफे से हुई थी. दरअसल अन्नाद्रमुक पार्टी ने मई २००१में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया था लेकिन निरर्हता के चलते जयललिता स्वयं विधानमंडल की सदस्य चुने जाने के अयोग्य थीं. इसके बावजूद राज्यपाल फातिमा बीवी ने उन्हें मुख्य मंत्री की शपथ दिला दी थी.इस नियुक्ति को सुप्रीमकोर्ट ने अवैध ठहराया था तथा राज्यपाल के इस वैवेकिक कार्य को संविधान के विपरीत करार दिया था. इन विवादों के चलते जस्टिस फातिमा बीवी को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा था .


उच्चतर न्यायपालिका के जजों को राज्यपाल ऐसे कार्यपालिका के पदों पर नियुक्ति को लेकर आलोचना-प्रत्यालोचना होती रही है . कहा जाता है कि कम से कम सुप्रीमकोर्ट के रिटायर जजों को ऐसे पदों पर नियुक्ति लेने से परहेज करना चाहिए क्योंकि इन पदों पर कार्य करते हुए उन्हें तात्कालिक राज्य सरकार के निर्णयों को लागू करना पड़ता है जिसमे अध्यादेश प्रख्यापन तथा/या मुख्यमंत्री की नियुक्ति ऐसी शक्तियों का प्रयोग करना शामिल है और इनमे सांविधानिक अनौचित्यता होने पर मीडिया तथा राजनैतिक विश्लेषकों की तीखी आलोचना का सामना करना पड़ता है.

अनुच्छेद १२४(७)के अंतर्गत प्रावधानित हैकि कोई व्यक्ति, जिसने उच्चतम् न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पद धारण किया है, भारत के भीतर किसी न्यायालय में या किसी अधिकारी के समक्ष अभिवचन  या कार्य नहीं करेगा. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के भी स्थायी न्यायाधीश रहने के पश्चात् विधि व्यवसाय पर निर्बन्धन है. लेकिन इन न्यायाधीशों के संवैधानिक पद नियुक्ति पर कोई रोक नहीं है. हरगोविंद पन्त बनाम रघुकुल तिलक (१९७९)में  में सुप्रीमकोर्ट ने अभिनिर्धारित किया था कि राज्यपाल का पद भारत सरकार के अधीन नहीं है .राज्यपाल का पद एक स्वतंत्र सांविधानिक पद है जो न तो संघ सरकार के नियंत्रण में है और न उसके अधीनस्थ है.


न्यायाधीशों के सेवानिवृत्ति के पश्चात् किसी न्यायालय या अधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य करने पर निर्बन्धन के पीछे लोकनीति है जो व्यक्ति उच्चतर न्यायपालिका का सदस्य रहा है, उसके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत विधि बन जाते हैं तथा अभिलेख न्यायालय होने के कारण इनके द्वारा दिए गए निर्णय वर्षों तक नज़ीर बने रहते हैं. अतः यदि वे किसी मोवक्किल के पक्ष में कोई उलट बहस करते हैं तो न्यायालय के समक्ष धर्म संकट उत्पन्न हो जाएगा.

वैसा ही उलझाव उन स्थितियों में भी उत्पन्न होता है जब ये न्यायाधीश न्यायपालिका से इतर किसी पद का निर्वहन करते हैं. मुख्यमंत्री की नियुक्ति पर विवेकाधिकार पर बहुत सारे निर्वचन उपलब्ध हैं और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश रहे राज्यपाल से इस विवेकाधिकार के प्रयोग पर आम लोगो में सांविधानिक मर्यादा रक्षा हेतु अतिरिक्त अपेक्षाएं होना स्वाभाविक हैं. एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाना जो पद के लिए अर्हता ही न रखता हो, सामान्य भूल नहीं मानी जा सकती है.इसी प्रकार ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करना जो सुप्रीमकोर्ट के स्वयं के निर्णय को जानबूझ कर पलटता हो, एक आम नागरिक में न्यायालय के प्रति सम्मान में न्यूनता लाएगा.
भारतीय संविधान शक्ति प्रथक्करण सिद्धांत को विधायिका तथा कार्यपालिका के मध्य लागू करने में भले ही शिथिल हो लेकिन न्यायपालिका की स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता के प्रति अतिसंवेदनशील है. न्यायाधीशों के निश्छल,निष्पक्ष तथा निर्विकार व्यक्तित्व के कारण ही उन्हें कार्यपालिका में कोई पद नहीं दिए जाते. कई बार जज लोग स्वयं भी विनयपूर्वक अस्वीकार कर देते हैं जिससे उन्हें असुविधाजनक स्थितियों का सामना न करना पड़े. वैसे भी विधि की अनभिज्ञता तो किसी को भी सुरक्षा नहीं देती, न्यायमूर्तियों से तो अतिरिक्त सतर्कता की दरकार होती है!


स्वतंत्रता के बाद कई पूर्व न्यायाधीशों ने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ा है लेकिन किसी भी सत्ताधारी राजनैतिक दल ने समर्थन नहीं किया और चुनाव अंततः प्रतीकात्मक ही रहा.जस्टिस हिदायतुल्लाह को उपराष्ट्रपति पद पर  ही संतोष करना पड़ा. इसका करण भी स्पष्ट है. राजनैतिक दल नहीं चाहते कि उस पद पर बैठा व्यक्ति उनसे सवाल जवाब करे. जस्टिस सथासिवम द्वारा जब राज्यपाल का पद स्वीकार किया गया था तब कतिपय क्षेत्रों में प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई थी. उनके द्वारा प्राख्यापित अध्यादेश पर रोक लगाने से सुप्रीमकोर्ट की साख तो बच गयी लेकिन राज्यपाल पद की ऐसी किरकिरी हुई है जो भविष्य में याद रखी जायेगी.


Sunday, 18 March 2018

सरकारी नौकरी हेतु अनिवार्य सैन्य सेवा की विधिमान्यता


रक्षामंत्रालय से सम्बंधित संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की हैकि ऐसे लोग जो सरकारी नौकरी पाना चाहते हैं, उनके लिए पांच साल की सैन्य सेवा अनिवार्य की जाये. समिति की अनुशंसा है कि केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा नयी भर्ती में यह नियम लागू किया जाये. समिति ने थल,जल तथा वायु सेना में योग्य अधिकारियों तथा कर्मकारों की भरी कमी पर चिंता व्यक्त करते हुए आशा व्यक्त की है कि ऐसा करने पर न केवल सेना में मानव संसाधन की संख्या बढ़ेगी वरन सिविल सेवाओं में देश प्रेम , अनुशासन  तथा समर्पण का भाव जाग्रत होगा तथा प्रशासनिक अधिकारी बिना किसी डर या दबाव के काम करने को उद्द्यत होंगे. सेना  की दुर्गम सेवाओं का एहसास होगा तथा सैनकों के प्रति श्रद्धा बढ़ेगी. अभी तक सिविल सेवाओं के लिए ऐसी कोई शर्त तो नहीं है लेकिन शार्ट सर्विस कमीशन पाए तथा भूतपूर्व सैनिकों/पाल्यों के लिए एक सीमित प्रतिशत तक स्थान आरक्षित हैं.


मक्सिको समेत कई देशों में 18 से 26 वर्ष की आयु के पुरुषों/महिलाओं को अनिवार्य सैन्य सेवा देनी होती है.अन्यान्य देशों में इनको पंजीकरण कराना होता है,20 दिन से लेकर तीन वर्ष की ट्रेनिंग लेनी पड़ती है तथा आवश्यकता/आपातकाल में सैन्य सेवा करनी होती है.कुछ अन्य देशों में ऐसी सेवा अनिवार्य तो नहीं है लेकिन एक आकर्षक विकल्प के रूप में स्थापित है.

संयुक्त राज्य अमेरिका में गृहयुद्ध (१८६३)के समय सैन्य सेवा अनिवार्य की गयी थी लेकिन तीन सौ डालर जुर्माना देकर कोई अपनी जगह प्रतिस्थानी दे सकता था.इस छूट का दुरुपयोग करते हुए कईयों ने अपनी जगह अपराधियों तथा विकलांगों को भरती करा दिया.प्रथम विश्व युद्ध (१९१७), कोरियाई तथा विएतनाम युद्ध के समय जबरदस्ती भरती की प्रक्रिया पुनः अपनाई गयी.जिमी कार्टर के राष्ट्रपतित्व काल (१९७९) में कानून पारित 26 वर्ष की आयु तक के लोगों के लिए भरती पंजीकरण अनिवार्य कियागया जिससे सेना को आपातकाल में मानव संसाधन उपलब्ध रहे.पंजीकरण न कराने पर जुर्माने की व्यवस्था है लेकिन हाल के वर्षों में किसीको दोषी करार नहीँ कियागया है. पंजीकृत व्यक्तियों को फेडरल तथा स्टेट विश्वविद्यालयों में शुल्कों में छूट होती है , ड्राइविंग लाइसेंस आसानी से बनते हैं तथा ऐसी ही अनेक अन्य सुविधाएँ दी जाती हैं.जो लोग मिलिट्री सर्विस के बाद स्वर्गवासी होते हैं उनके शव नेशनल सिमिट्री में दफनाये जाते हैं और यह अत्यंत सम्मान का  प्रतीक माना जाता है.


दूसरी तरफ चीन ,जिसे कि विश्व की सेनाओं में सर्वाधिक संख्याबल वाला बतलाया जाता है, में यों तो सार्वभौमिक सैन्य सेवा अनिवार्य है लेकिन यह केवल सिद्धांत में है तथा अत्यधिक जनसँख्या होने के कारण इच्छुक लोगों को भी सेवारत नहीं किया जा पाता.


भारत में सैन्य सेवा अनिवार्य नहीं है लेकिन इसको एक अच्छे वैकल्पिक कैरियर के रूप में जाना/प्रचारित किया जाता है. मौलिक अधिकारों के भाग 3 में अनुच्छेद 23शोषण के विरुद्ध अधिकार देता हैं तथा दुर्व्यापार, बेगार और सभी प्रकार के बलात श्रम को प्रतिषिद्ध करता है लेकिन इस अनुच्छेद में ऐसी परिस्थितियों पर ध्यान दिया गया है जिनमे राज्य को लोक नियोजन के लिए अनिवार्य सेवा लेनी पड़ेगी.

देश की रक्षा के लिए सेना में अनिवार्य भर्ती या कठिन परिस्थितियों में पुलिस की सहायता करने का आदेश देना बलात श्रम नहीं है क्योंकि वह अनु०23 (2) के अधीन अनुज्ञेय है. यह भी प्रावधानित है ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म,मूलवंश,जाति या वर्ग या इनमे से किसीके आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा.अनुच्छेद 33, सशस्त्र  बलों के सदस्यों तथा उनके अनुषंगी संगठनो को मौलिक अधिकारों में कमी करने की शक्ति संसद को प्रदान करता है.भारत संघ बनाम एल.डी.बालम सिंह (2002)के वाद में सुप्रीमकोर्ट ने अभिनिर्धारित किया है कि अनु० 33 मूल अधिकारों का अपवाद है. कार्य पालिका के कुछ अंग ऐसे हैं जहाँ स्वतंत्रता को नियंत्रित करना आवश्यक है. सैन्यबल,पुलिस,आसूचना (इंटेलिजेंस)अभिकरण ऐसे ही संगठन हैं जहाँ स्वतंत्रता को सीमित करना आवश्यक है . यह अनुच्छेद संसद को यह शक्ति देता हैकि वह विधि बनाकर यह सीमा तय करे जिसके भीतर अनु० 33 में विनिर्दिष्ट संगठनों के सदस्यों को मूल अधिकार उपलब्ध होंगे.
सेना अधिनियम,नौसेना अधिनियम , वायुसेना अधिनियम,सीमा सुरक्षा बल अधिनियम और इसी प्रकार के अन्य अधिनियम अनु० 19(1)(ग) के अधीन संगम के अधिकार को सीमित करते हैं.पुलिस बल (अधिकारों का निर्बन्धन) अधिनियम १९६६ में यह घोषित किया गया है कि पुलिस बल का कोई सदस्य किसी व्यवसाय संघ या श्रमिक संघ या राजनैतिक संगम कासदस्य नहीं हो सकता.बताया जाता हैकि १९७३ में उ०प्र० में पी.ए.सी.के जवानों ने अपना संघ बनाने की मांग को लेकर आन्दोलन किया था जिसे सख्ती से कुचल दिया गया था. इसी कारण विश्वविद्यालय में भीषण आगजनी हुई थी.


अनु० 34 ऐसी परिस्थिति अनुध्यात करता है जहाँ देश के किसी भाग में सेना विधि( मार्शल लॉ) घोषित की गयी हो . यदि सेना विधि के दौरान व्यवस्था बनाये रखने में कोई अवैध बात की गयी है तो संसद को यह शक्ति दी गयी हैकि वह क्षतिपूर्ति अधिनियम पारित कर सकेगी. सेना विधि ,अनु० 352 के अधीन की गयी उद्घोषणा से भिन्न है.


संविधान के भाग 4क में वर्णित मूल कर्तव्यों में जहाँ प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य बतलाया गया है कि संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों , संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे,भारत की प्रभुता ,एकता और अखंडता की रक्षा करे तथा यह भी स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि "देश की रक्षा करे तथा आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे".

"जननी जन्म भूमिश्च , स्वर्गादपि च गरीयसी" को हृदयंगम  करने वाली भारतीय मनीषा में सैन्य सेवा मात्र कैरियर नहीं बल्कि जीवन को सफल बनाने का एक साधन है.भारतीय सेनाएं शौर्य और वीरता का प्रतिमान हैं.हमारे यहाँ मद्रास,पंजाब,राजपुताना,नगा,डोगरा,जाट, सिख, कुमांऊतथा गढ़वाल रायफल्स ऐसी रेजिमेंट हैं जो साहस,कर्तव्य निष्ठा और दिलेरी के लिए विश्व विख्यात हैं.इनमे विशेष बात यह भी है कि कई परिवार और खानदान पुश्तों दर पुश्तों से अपने पुत्रों को सेना में भरती कराकर गर्व का अनुभव करते हैं.


सैन्य शिक्षा देने के लिए सैनिक स्कूलों के साथ-साथ राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज ,नेशनल डिफेन्स अकादमी , कॉलेज ऑफ़ डिफेन्स मैनेजमेंट, डिफेन्स सर्विसेस स्टाफ कॉलेज ऐसे प्रख्यात संस्थाओं के अलावा गुडगाँव में इंडियन नेशनल डिफेन्स यूनिवर्सिटी की स्थापना हो चुकी है जो सेना पाठ्यक्रम से सम्बंधित यू0जी० /पी० जी० तथा रिसर्च कार्यक्रम चलायेगी , सन १९६२ के चीन युद्ध के बाद देश की सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबंद करने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी.उसी के अंतर्गत दसवीं के बाद एन.सी.सी. की ट्रेनिंग लागूं की गयी थी जिसमे थल,नभ तथा नौ सेना का प्रारंभिक सैद्धांतिक तथा प्रायोगिक ज्ञान दिया जाता है.एन.सी.सी. का " बी" और  " सी" प्रमाण पत्र धारकों को सेना तथा अन्य सेवाओं एवं इंजीनियरिंग/मेडिकल समेत विश्वविद्यालयी पाठ्य क्रमों में प्रवेश में वरीयता /वेटज दिया जाता है.सैन्य सेवा की शर्तें आकर्षक बनाई गयीं हैं जिससे नवयुवक/युवतियां इसमें शामिल हों.हाल में महिलाओं को भी स्थाई कमीशन दिया जाना अनुमन्य हुआ है. अब तो फाइटर प्लेन चलाने के लिए भी महिलायें चयनित हो चुकी हैं.

 
इधर हाल के वर्षों में सेना के तीनो अंग मानव संसाधन की कमी से जूझ रहे हैं.थल सेना से इस्तीफा देकर प्राइवेट सिक्यूरिटी एजेंसी चला रहे हैं तो नभ सेना से अलग हो कर प्राइवेट प्लेन चला रहे हैं.लोग अपने पाल्यों को उच्च शिक्षा दिलाकर मल्टीनेशनल कंपनियों,कार्पोरेशनों तथा कई बार विदेश में नौकरी कराने के लिए उद्द्यत हो रहे हैं.जनसँख्या नियंत्रण कार्यक्रम अपनाने के कारण एक-दो बच्चे हैं अतः उन्हें सेना की जोखिम भरी सेवा से विरत रखते हैं.उधर सिविल सेवाओं में अनुशासन ,उत्तरदायित्व तथा जवाबदेही में कमी आने से स्तरहीनता दिखलाई पड़ रही है.इन्ही सब कारणों से संसदीय समिति ने उक्त सिफारिश की है.
एक जनतांत्रिक देश में सैन्य तथा सिविल सेवाएँ अलग-अलग हैं तथा सामान्यतः सेना को नागरिक सेवाओं से दूर रखना ही बेहतर होता है.अत्यंत आपात स्थिति में ही सेना की सहायता ली जानी चाहिए.इससे सेना तथा नागरिक प्रशासन में सामंजस्य रहेगा तथा दोनों का मनोबल ऊँचा रहेगा.संविधान निर्माताओं ने इस बात का विशेष ध्यान रखा था. संविधान ने कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित करते हुए संघ के रक्षाबलों का सर्वोच्च समादेश भी निहित किया है लेकिन इसका प्रयोग विधि द्वारा नियमित किया है.देश में सेना ही सत्ता पर काबिज़ न हो जाये, इसके लिए भी पर्याप्त रक्षोपाय किये गए हैं.


काम का अधिकार मूल अधिकार न होकर राज्य के नीति निदेशकों का ही हिस्सा हैं जिसमे समान कार्य के लिए सामान वेतन के साथ पुरुष और स्त्री , सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त कराने का समादेश है.संसद तथा राज्य   विधान मंडल विधि बना कर  सरकारी सेवाओं में भरती के लिए पांच साल की अनिवार्य सैन्य सेवा का प्रावधान कर सकते हैं.मेडिकल में प्रवेश के लिए गाँव में पांच वर्ष तक अनिवार्य सेवा की शर्तें विधिमान्य हैं.यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन हैकि एक बार सेना की सेवा करने के बाद उस व्यक्ति पर सेना का अनुशासन हावी रहेगा जो समय के साथ गहराता जायेगा.सेना-सिविलियंस का गठजोड़ प्रजातान्त्रिक मूल्यों,और प्रतिबद्धताओं पर भारी  पड़ सकता है.

एक बात और है. अभी सेना में किसी प्रकार का आरक्षण नहीं है जबकि सरकारी नौकरियों में यह पचास प्रतिशत तक है.अनिवार्य सैन्य सेवा की शर्त अधिरोपित करने से संविधान की उद्देशिका में वर्णित सामजिक न्याय पाने के लिए भी नये प्रतिमान निश्चित करने होंगे.संसदीय समिति की सिफारिशें स्वागत योग्य हैं लेकिन गहन विचार -विमर्श के उपरान्त ही इस पर अमल अपेक्षित है.





Saturday, 17 March 2018

सरोगेसी  कानून : अनसुलझे प्रश्न 
डॉक्टर निरुपमा अशोक 

अभी हाल में केंद्र सरकार ने सरोगेसी कानून ( किराये पर कोख देने सम्बन्धी विधि ) के प्रारूप को अन्तिम रूप दिया है।  केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसे स्वीकार कर लिया है तथा आशा की जानी चाहिए कि संसद के आगामी सत्र में इस पर विचार विमर्श  होगा। प्रस्तावित कानून के ज़रिये उन दम्पत्तियों को अपने किसी रिश्तेदार या दोस्त की कोख इस्तेमाल करने की छूट होगी जो स्वयं अक्षम हैं तथा उनके विवाह हुए पांच वर्ष बीत चुके हैं लेकिन उन्हें संतान सुख नहीं मिल पाया है। प्रस्तावित कानून के द्वारा कोख के व्यावसायिक उपयोग पर पूरी तरह से रोक लगाई गयी है।  यही नहीं विदेशियों , एकल पुरुष तथा स्त्रियों , समलैंगिकों तथा लिव - इन रिश्तों में रह रहे युगलों को भी इसके दायरे से दूर रखा गया है।  दरअसल कानून के द्वारा सिर्फ विवाहित युगलों को सरोगेसी सुविधा उपलब्ध कराने के पीछे विवाह-संस्था की पवित्रता को अक्षुण्ण रखते हुए उन्हें संतान सुख दिलाने की मंशा पूरी हो रही है।
अभी तक सरोगेसी को लेकर भारत में कोई विशिष्ट कानून नहीं है।  देश में उन्नत तथा अत्यंत आधुनिक मेडिकल  सेवाओं के उपलब्ध होने के कारण पिछले वर्षों में टेस्ट ट्यूब बेबी तथा सरोगेसी  का व्यापार प्रायः दो बिलियन डॉलर तक पहुँच गया, बताया जा रहा है।  केवल सरोगेसी के द्वारा पच्चीस हज़ार शिशु जन्म ले रहे हैं जिनमे अस्सी प्रतिशत विदेशी दम्पत्तियों के हैं।  गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान में ऐसे नर्सिंग होमों की बाढ़ आ गयी है जो आई ० वी ० ऍफ़ ० या इससे मिलती जुलती तकनीकों से ऐसे व्यक्तियों को संतान सुख दे रहे हैं जो इसके लिए व्यय वहन  करने के लिए तैयार हैं।  बेकारी और गरीबी की मार  झेल रही बहुत सी स्त्रियां इसके लिए सहमति भी दे रहीं हैं तथा इससे प्राप्त धन से वे अपने परिवार का पोषण कर रही हैं।  कई स्त्रियों ने तो अपनी कोख पांच छः बार तक किराये पर दी है , जिससे उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ा है।  प्रस्तावित कानून में अधिकतम एक बार ही किसी की कोख का अन्यों  द्वारा इस्तेमाल किया जा सकेगा। 

सरोगेसी सम्बंधित विधि के न होने के कारण मामले को संविदा अधिनियम तथा अन्य लागू कानूनों की परिधि में  निपटाया जाता है।  दरअसल , सरोगेसी अनुबंध में तीन पक्षकार होते हैं :एक जैविक ( बायोलॉजिकल ) दम्पति , दूसरी सरोगेट स्त्री (जिसकी कोख इस्तेमाल की जानी है ) तथा तीसरा वह डॉक्टर या नर्सिंग होम जिसके द्वारा यह सब कार्यवाही संचालित होती है।  ऐसे करार में जननी को निश्चित अवधि तक नर्सिंग होम में ही रहना होता है जिसका खर्च उठाया जाता है , कोख का किराया दिया जाता है तथा चिकित्सक को उसकी सेवा के बदले ऊंची फीस दी जाती है।  लेकिन इन अनुबंधों में सबसे कमजोर पक्ष वह जननी होती है जिसकी कोख का इस्तेमाल होता है।  अनुबंध में प्रावधान रखा जाता है की यदि कोई जटिलता होती है या शिशु की जान को खतरा हो तो शिशु को बचाया जायेगा।  एक बहु प्रचारित मामले में गर्भ के आठवें महीने में सरोगेट स्त्री गिर पड़ी।  डॉक्टरों ने जननी की जान बचाने की बजाय आपरेशन कर गर्भस्थ शिशु को तो बचा लिया लेकिन स्त्री की मृत्यु हो गयी।  फिर भी उसके परिवार जन  प्रतिकर  नहीं पा सके।  यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गर्भ के चिकित्सकीय समापन अधिनियम  में माँ को बचाने को प्राथमिकता दी गयी है।

सरोगेसी  से सम्बन्धित बहुत से मामले न्यायालय की चौखट तक पहुंचे हैं।  सन 2008 में एक जापानी डॉक्टर दम्पति ने गुजरात की स्त्री को सरोगेट अनुबंधित किया तथा उससे एक कन्या का जन्म हुआ , लेकिन इस बीच इस युगल  में तलाक़ हो गया।  यह बच्ची माता-पिता विहीन तो हुई ही , राष्ट्रीयता विहीन भी हो गयी।  अंततः उस बच्ची को उसकी दादी माँ ले गई लेकिन उसे नागरिकता नहीं मिली थी।  ज्ञातव्य है कि जापान में सरोगेसी पर प्रतिबन्ध है। सन 2012 में एक सिहरन  पैदा करने   वाला मामला प्रकाश में आया।  एक ऑस्ट्रेलियाई युगल ने सरोगेसी हेतु अनुबंध से पैदा हुए जुड़वाँ बच्चों में से एक को ही स्वीकार किया तथा अपने साथ ले गए।  दूसरा शिशु यहीं रह रहा है जो उस स्त्री पर दायित्व बन गया है।  इस मामले में एक ऑटो चालक  की  भूमिका प्रकाश में आयी जिसने स्त्री को मात्र  पिचहत्तर  हज़ार रुपये दिलाये तथा बिचौलिये और स्वयं ने बड़ी रकम उदरस्थ कर ली।  चेन्नई की एक अविवाहित गरीब स्त्री के गले में यह शिशु आ पड़ा है।  सन 2014 में दिल्ली में एक स्त्री का बीज ( ओवम )प्रत्यावर्तित करते हुए सर्जरी के दौरान मौत हो गयी।  ऐसे अनेकानेक उदाहरण चर्चा में आये हैं जिनमे सरोगेट स्त्री को  कोई प्रतिकर  प्राप्त नहीं हुआ है।


एक अन्य रोचक किस्सा इंग्लैण्ड का है जिसमे किराये की कोख देने वाली स्त्री ने उस नवजात शिशु को  वापस करने से इन्कार कर दिया जिसके लिए गर्भधारण करने से पूर्व उसने अनुबंध किया था तथा प्रतिफल के रूप में अच्छी खासी रकम ली थी।  बताया जाता है कि  एक निःसंतान दम्पति ने अखबार में विज्ञापन देकर ऐसी स्त्री की दरकार की थी जो किराया लेकर अपनी कोख में दम्पति के निषेचित डिम्ब को धारण करे तथा प्रसूति के छह  महीने के बाद शिशु को उसके जैविक माता-पिता को वापस कर दे।  लेकिन प्रसवोपरांत सरोगेट महिला को उस शिशु से इतना भावनात्मक लगाव हो गया कि  उसने वह सारा धन ब्याज सहित लौटाने की पेशकश की लेकिन बच्चे को अपने से अलग करने से इनकार कर दिया।  मामला अदालत गया लेकिन फैसला जननी माँ के पक्ष में सुनाया गया।  अदालत का कहना था कि नौ महीने अपनी कोख में पालने वाली माँ का उस बच्चे पर प्रथम अधिकार है तथा निः  संतान दम्पति को ऐसी स्त्री से संविदा भंग के लिए मात्र प्रतिकर  पाने का अधिकार है। ऐसी संविदा का विशिष्ट अनुपालन न तो विधिक रूप से संभव और न ही उचित , क्योंकि स्त्री बीज ( ओवम ) तथा स्पर्म के अलावा बाकी सब कुछ इसी सरोगेट स्त्री का था।  शिशु का बृहत्तर हित  भी इसी में है  कि उसे अपनी माँ के पास रहने दिया जाये।  ऐसे ही एक अन्य रोचक मामले में विवाह-विच्छेद के लिए मुकदमा लड़ रहे दो पतियों ने अपनी पत्नियों की इस मांग को मानने से इनकार कर दिया जिसके द्वारा उन्होंने बिना शारीरिक सम्बन्ध बनाये आई ० वी ० एफ ० तकनीक से गर्भवती होने की मांग की थी।

सरोगेसी को लेकर नीति,नैतिकता तथा मर्यादा के कई प्रश्न उलझे हुए हैं।  प्रायः प्रत्येक धर्म में विवाह की संस्था पवित्र मानी गयी है तथा इससे पैदा हुई संतान को ही वैधानिकता प्रदान की गयी है.गर्भपात कराना अवैध ही नहीं अपराध है। संतान उत्पत्ति के नैसर्गिक नियमो में किसी भी रूकावट को मान्यता नहीं है।  कई सम्प्रदायों में नियोग पद्धति द्वारा संतानोत्पत्ति अनुमत है लेकिन यह  पुरुषों की नपुंसकता  का हल है।  स्त्री की प्रजनन क्षमता क्षीण होने पर दूसरी स्त्री से विवाह होता था लेकिन अब यह अवैध है।  हिन्दू विवाह अधिनियम के द्विविवाह पर रोक लगाने जाने वाले प्रावधान को उच्चतम न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि प्रत्येक हिन्दू की कपाल क्रिया करने के लिए पुत्र आवश्यक है तथा उसे पुत्र प्राप्ति के लिए दूसरा विवाह करने की अनुमति होनी चाहिए जो उसका धार्मिक अधिकार है , माना नहीं गया था।  न्यायालय का कहना था कि यदि किसी हिन्दू के पुत्र नहीं हो रहा है तो वह दत्तक ग्रहण कर सकता है लेकिन दूसरा विवाह अवैध होगा।

दरअसल सरोगेसी तकनीक की मांग में इसलिए भी बाढ़  आई है कि अब अक्षम दम्पति ही नहीं बल्कि एकल पुरुष तथा स्त्रियां , समलैंगिक जोड़े तथा लिव -इन रिश्तों में रहने वाले युगल गर्भाधान के पचड़े में पड़े बिना संतानोत्पत्ति चाहते हैं क्योंकि मेडिकल साइंस तथा जेनेटिक इंजीनियरिंग ने इसे संभव बना दिया है।  विधि की दृष्टि से लिव -इन रिलेशनशिप तथा एकल पुरुष-स्त्री द्वारा संतानोत्पत्ति अवैध नहीं है।  कई देशों में लिव -इन रिश्तों को विवाह के समकक्ष मान्यता मिली हुई है।  हर स्त्री को अपने शरीर पर पूरा अधिकार है तथा गर्भधारण/ गर्भपात उसकी अपनी मर्ज़ी है जिस पर कानून रोक नहीं लगा सकता।  हाँ , शरीर के व्यवसायिक उपयोग को रोक जा सकता है क्योंकि यह प्रचलित मान्यताओं तथा नैतिकता के विरुद्ध है।  वैश्यावृत्ति पर लगी रोक इसी कारण वैध है।  कहा जा रहा है कि सरोगेसी भी प्रच्छन्न वैश्यावृत्ति है क्योंकि कोख को किराये पर देना उसी का एक प्रकार है।  स्त्री स्वातंत्र्य के पुरोधा इसका पुरज़ोर विरोध करते हैं।  उनका कहना है कि यदि पुरुष अपना शुक्राणु बेच सकता है तो स्त्री अपनी कोख क्यों नहीं दे सकती? ' विकी डोनर 'फिल्म की कथा वस्तु इसीसे मिलती जुलती है।

प्रस्तावित कानून के बनने से पहिले ही उसकी आलोचना प्रारम्भ हो गयी है।  विदेशी युगलों को अनुमति न देने का तो समर्थन हो रहा है लेकिन अन्यों का नहीं।  कई देशों में इस पर पूर्णतः प्रतिबन्ध है।  लेकिन एकल स्त्री पुरुषों  तथा लिव -इन रिश्तों को कानूनी मान्यता प्राप्त है। यह अभी तक गोद लेकर अपनी इच्छा पूरी करते हैं। जो दम्पति सक्षम हैं वे भी इसके द्वारा संतान चाहते हैं।  बॉलीवुड के एक पॉपुलर स्टार ने भी इसी प्रकार एक संतान प्राप्त की बताया जा रहा है,जबकि उनके अपने पुत्र-पुत्री हैं. थोड़े दिन पहले एक अनब्याही महिला ने उच्चतम न्यायालय में गुहार लगाईं थी कि उसके शिशु को अपनी माँ के नाम के साथ पासपोर्ट जारी किया जाए तथा  अधिकारियों को आदेश दिया जाए कि वे शिशु के पिता के नाम बताने पर जोर न दें। न्यायालय ने इसकी अनुमति भी दे दी। ऐसे एकल स्त्री पुरुषों की संख्या बहुतायत में है जो विवाह बंधन में बंधे बिना संतान चाहतें हैं।  समलैंगिकों की भी पर्याप्त संख्या है जो सरोगेसी के माध्यम से संतानोत्पत्ति चाहते हैं।  चूँकि इस पद्धति में बीज / स्पर्म अपना होता है अतः ऐसे बच्चे में अपने पन  का भाव अधिक रहता है।  यही नहीं , समय दूर नहीं है जब मानव-क्लोन बनना वास्तविकता हो जाएगी।  इसमें भी सरोगेसी तकनीक का सहारा लेना मजबूरी होगी।

भारतीय संविधान में यों तो स्त्रियों को बराबरी का हक़ दिया गया है तथा कुछ स्थितियों  में अतिरिक्त रक्षोपाय भी हैं , लेकिन परिवार तथा विवाह संस्था को बचाये रखने के लिए दम्पतियों पर बंदिशें भी हैं।  नरगिस मिर्ज़ा के केस में यह निर्धारित किया जा चुका  है क़ि हर स्त्री को माँ बनने का नैसर्गिक अधिकार है लेकिन यह स्वयं के सुख के लिए होना चाहिए तथा स्वीकार्य मापदण्डों के अन्तर्गत होना चाहिए. सरोगेसीपर चल रही बहस में नीति , नैतिकता तथा मर्यादा के प्रश्नों के साथ स्त्री स्वातंत्र्य अधिकारों के मध्य सामंजस्य की मांग की जा रही है।

सरोगसी कानून को लेकर अभी यही प्रश्न तैर रहे हैं।  उस शिशु के अधिकारों पर चर्चा नहीं हो रही है जो इस माध्यम से जन्म ले रहा है।  वयस्क होने पर क्या उसे कपनी जननी माँ को भरण- पोषण देने के लिए बाध्य किया जा सकेगा  या घरेलू हिंसा अधिनियम के अन्तर्गत दाई ठहराया जा सकेगा, यदि उसके जैविक माता-पिता की मृत्यु हो जाए ? क्या जैविक माता-पिता अनुबंध करके उस सरोगेट को अपनी संपत्ति में हिस्सा देकर बच्चे के अधिकारों पर कुठारा  घात  कर सकतें हैं?यदि स्त्री बीज(ओवम) के साथ-साथ पुरुष शुक्राणु भी एक से अधिक लोगों के लिए जाएँ तो स्थिति  और भी जटिल तथा दुरूह हो जाएगी।शिशु की पहचान के संकट  के साथ प्रचलित मान्यतायों तथा विधिक प्रावधानों की पुनर्व्याख्या करनी होगी।  नागरिकता तथा राष्ट्रीयता के प्रश्न भी महत्वपूर्ण हैं।

भारत में सरोगेसी इंडस्ट्री अपने शबाब पर है।  इन्टरनेट पर खुलेआम ऐसी स्त्रियों के फोटो तथा अन्य जानकारी उपलब्ध है जो अपनी कोख को किराये पर देने के लिए तैयार हैं।  शुक्राणु देने वालों के बारे में भी जानकारी उपलब्ध है।  गोपनीयता की भी गारन्टी दी जा रही है।  आई ० वी ० ऍफ़ ० तकनीक को विस्तार से समझाया जाता है तथा जोखिम भी बतलाई जाती है।  इन सबका खुलेआम विज्ञापन किया जा  रहा है।  आशंका व्यक्त की जा रही है की यदि इस पर कानूनी रोक लगाई गयी तो इसमें भी अवैध धंधा फलने फूलने लगेगा। मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम में सिर्फ नजदीकी रिश्तेदारों/मित्रों के अंग लेने का प्राविधान है तथा इसके व्यवसायिक उपयोग पर रोक है लेकिन इसमें काला  बाजार फल-फूल रहा है और कई नामी-गरामी अस्पताल भी इसमें लिप्त बताये जा रहे हैं।  यह एक यक्ष प्रश्न है क़ि क्या कोई भाभी,बहन या साली अपने देवर/जेठ ,भाई या जीजा के लिए अपना गर्भ उधार  देने के लिए राज़ी हो जाएगी ?  थोड़े दिन पूर्व बरेली से समाचार मिला था कि दो बहिनों में एक प्रजनन के लायक नहीं थी तथा दूसरी बहन आई वी ऍफ़ से जीजा के शुक्राणु से डिम्ब को निषेचित कर अपने गर्भ से संतान पैदा करने को राजी थी, लेकिन पत्नी राजी नहीं हुई।  गनीमत थी कि बहनों की माँ सक्षम थी और उसीने अपने दामाद की संतान को जन्म दिया।