Monday, 16 June 2025

एकांतता के अधिकार पर डंक

एकांतता के अधिकार पर डंक 

अभी हाल में एक टी ० वी ० चैनल द्वारा बॉलीवुड के बड़बोले और खलनायक की भूमिका में दक्षता प्राप्त कलाकार द्वारा एक महत्वाकांक्षी युवती को सिनेमा के रुपहले पर्दे पर पैठ बनाने के जिन ‘ गुरुमंत्रों का खुलासा किया गया,उससे सकते की स्थिति है ।छिपे हुए वीडियो कैमरे के सामने एक लालसा भरी युवती को हीरोइन बनाने के लिए हमबिस्तर होने की शर्त रखी गई तथा कई नामी-गिरामी हीरोइनों का नाम लेकर यह स्थापित करने का प्रयास किया गया कि सुनहरे रजत-पट पर आने के लिए यही एक मात्र रास्ता है जिसे सभी पार करते हैं । प्रसिद्ध निदेशकों पर अपना रुतबा जमाते हुए यह भी आश्वासन दिया गया कि उनकी सिफारिश वाली लड़की को कोई ग़लत अंदाज में नहीं देखेगा तथा इंडस्ट्री के चक्रव्यूह के दरवाज़े खुद-ब-खुद खुलते चले जाएँगे ।प्रायः आधा घण्टे के इस एपीसोड में वे दोनों एक कमरे में अकेले बतियाते रहे । वहाँ शराब भी पी गई तथा फ़िल्म इंडस्ट्री के ठेकेदार का दम भर रहे उक्त कलाकार ने नवयुवती को आगोश में लेकर चुम्बन लिया तथा शारीरिक सम्बन्ध बनाने का असफल प्रयास किया ।

टी ० वी ० चैनल पर इस घटना के दिखाने के कुछ ही दिन पहले एक अन्य टी ० वी ० चैनल ने विज्ञापनों के लिए बनने वाली फिल्मों में नई लड़कियों को मॉडल्स के तई मौका देने के लिये शारीरिक सम्बन्ध बनाने की माँग करने वाले एक रैकेट का भंडाफोड़ किया था ।चैनल से प्रसारित होने के बाद सेक्स के भूखे उस व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया ।अभी हाल में एक अन्य टी ० वी ० चैनल द्वारा दिल्ली के बिक्रीकर विभाग में अस्सी से अधिक कर्मचारियों तथा अधिकारियों को खुले आम रिश्वत के रुपये गिनकर जेब में रखते हुए दिखलाया गया जिस पर राज्य सरकार की किरकिरी हुई थी तथा किंकर्तव्यविमूढ़ एवम् ठगी सी मुख्य मंत्री ने कड़ी कार्यवाही का आश्वासन दिया।फलस्वरूप कइयों पर गाज गिरी और बहुतों के सिर पर दंडात्मक कार्यवाही की तलवार लटक रही है ।पुलिस वालों को वसूली करते,परीक्षार्थियों को नकल कराते तथा सूनामी जैसी आपदा में भी राहत सामग्री की चोर-बाजारी कराने की घटनाओं को बुद्धू बक्से में प्रायः रोज़ ही देखा जा सकता है ।

पिछली एन ० डी ० ए ० सरकार के कार्यकाल में रक्षा सौदों में दलाली तथा रिश्वतखोरी की पोल खोलते “तहलका “टेपों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने टी ० वी ० दर्शकों के लिए जानकारी पाने के नए अध्याय खोले थे । तहलका मचने पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को पद छोड़ना पड़ा था तथा तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडीज ने भी पद से इस्तीफ़ा दे दिया था ।बाद में वे मंत्रिमंडल में वापस आ गए लेकिन विपक्ष ने उन्हें लोकसभा की बाक़ी अवधि में सुनने से इनकार कर दिया था ।थोड़े ही दिनों बाद एक अन्य मंत्री को माइनिंग लीज देने के लिए रिश्वत स्वीकारते हुए दिखलाया गया ।बाद में खुलासा हुआ कि इस काण्ड को टेप कराने में झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री के बेटे का हाथ था ।

ऐसे एपिसोडों के प्रदर्शन को जहां न्यूज़ चैनल ‘ स्टिंग ऑपरेशन ‘(डंक मार कार्यवाही) कहते हैं और आम जनता के ‘ जानने के अधिकार ‘ की दुहाई देकर अपने कृत्य को न्यायोचित ठहराते हैं वहीं व्यथित व्यक्ति अपने एकान्तता के अधिकार (राइट टू प्राइवेसी) का उल्लंघन कहते हैं ।मीडिया नीतिशास्त्र का हवाला देकर किसी की प्राइवेट जिंदगी में सेंध लगाने के कृत्य को अनुचित करार दिया जाता है ।दलील दी जाती है कि किसी की व्यक्तिगत जिंदगी के किसी पहलू को उजागर करने से पूर्व उसकी अनुमति अवश्य ली जानी चाहिए ।

उक्त ताजातरीन मामले में अपना बचाव रखते हुए पुरुष कलाकार ने आरोप लगाया है कि नवयुवती पिछले छह महीने से उससे संपर्क में थी ।घटना के समय एक पंचसितारा होटल में उसे अनुनय-विनय करके बुलाया गया जहां शराब पिलाकर उससे जाने-अनजाने वह सब कहला लिया गया जो वह होशोहवास में नहीं कहता ।पुरुष कलाकार का यह भी कहना है कि सम्पूर्ण घटना के टेप की काँट-छाँट करके उसके ख़िलाफ़ जाने वाले अंश ही प्रसारित किए गए हैं ।यह भी कहा गया कि अकेले बंद कमरे में शराब तथा नवजवान स्त्री के साथ कोई भी पुरुष ऐसा ही व्यवहार करेगा तथा उकसाने के लिए वह पत्रकार भी बराबर का दोषी है ।पुरुष कलाकार ने घटना का होना स्वीकार कर लिया है और नशे में बहक कर जिन निदेशकों तथा स्त्री कलाकारों के बारे में अवमानजनक शब्द कहे हैं,उसके लिए दोनों हाथ जोड़ कर माफ़ी माँगी है तथा टी ० वी ० चैनल के खिलाफ़ कानूनी कार्यवाही की धमकी दी है ।

घटना के प्रसारित होने पर जहां कुछ कलाकारों ने उनके बहिष्कार का एलान किया है वहीं कुछ उनके समर्थन में भी उतरे हैं ।मीडिया के इस कृत्य को जहां एक ओर ‘ पीत पत्रकारिता ‘ का उदाहरण माना जा रहा है वहीं बचाव करने वालो का कहना है कि पुलिस वाले भी कॉलगर्ल्स, वैश्यावृत्ति, जुआं, नाजायज शराब के अड्डों आदि का भंडाफोड़ करने हेतु फर्जी ग्राहक बनकर जाते हैं तथा अपराधियों को रंगे हाथों गिरफ्तार करते हैं ।पत्रकारों का एक वर्ग यह भी मानता है कि डंक मारने वाली कार्यवाहियाँ वहीं होनी चाहिये जहाँ जनता के बृहत्तर हित हों तथा सार्वजनिक धन का दुरुपयोग हो रहा हो ।

प्रमोशन,विदेश भ्रमण,कार्यक्षेत्र में बेहतर अवसर तथा अतिरिक्त लाभ पाने के लिये स्त्री कर्मकारों द्वारा अपने को समर्पित करने के किस्से यदा-कदा अखबारों की सुर्खियां बनते हैं ।सिने जगत तथा मॉडलिंग की दुनिया में नई लड़कियों के देह शोषण के किस्से भी आम हो चुके हैं ।विश्वविद्यालयों तथा कॉलेजों में शिष्याओं के यौन शोषण के समाचार पढ़ कर हमारा सिर 
शर्म से झुक जाता है ।कार्य-क्षेत्र में महिला कर्मियों के साथ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष यौन उत्पीड़न के इतने प्रकरण हुए कि उच्चतम न्यायालय ने इसमें हस्तक्षेप कर इस पर रोक लगाने के लिए कानून बनाने पर ज़ोर दिया है ।

बॉलीवुड में जगह पाने के लिए स्वयं को पेश करने की सलाह देने वाले उक्त वर्णित प्रकरण में आरोपों प्रत्यारोपों के बीच सत्यता का पता चल पाना आसान नहीं है ।वीडियो टेप की काट-छाट की गई या नहीं,यह बता पाना तो मुश्किल है लेकिन एक तथ्य नकारा नहीं जा सकता कि युवती पत्रकार पिछले कई दिनों से पुरुष कलाकार के समीप आने का प्रयास कर रही थी तथा उसे तो यह पता था कि बगल के कमरे से इसकी रिकॉर्डिंग की जा रही है ।निश्चय ही वह अपने बोलने-करने में सजग,सतर्क और नियंत्रण में थी जबकि पुरुष कलाकार इन बातों की कल्पना तक से अनभिज्ञ था,अतः एक सामान्य पुरुष की तरह से बर्ताव कर रहा था ।

एकांतता के अधिकार में प्रत्येक को अपने शरीर,परिवार ,विवाह,बच्चों आदि की सूचना सुरक्षित रखना शामिल है ।एक सार्वजनिक व्यक्ति की इन सूचनाओं पर उसका भी एकाधिकार नहीं रहता तथा उसका यह दावा युक्ति-युक्त नहीं है कि उसके बारे में वही प्रकाशित-प्रसारित किया जाय जो वह ठीक समझे ।इसी प्रकार ‘ जानने के अधिकार में किसी की प्राइवेट ज़िन्दगी में ताकने-झांकने का अधिकार शामिल नहीं है ।उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया है कि एक दुष्चरित्र स्त्री को भी एकांतता का मौलिक अधिकार है तथा पुलिस वालों को गाहे-बगाहे उसके यहाँ जाकर उसकी उपस्थिति लगाने का अधिकार नहीं है ।












Saturday, 14 June 2025

नकारात्मक मताधिकार के सांविधानिक पहलू

 नकारात्मक मताधिकार के सांविधानिक पहलू 


गत दिनों एक जनहित याचिका द्वारा उच्चतम न्यायालय से गुजारिश की गई कि वह निर्वाचन आयोग को निर्देश जारी करे कि लोकसभा तथा विधानसभा के चुनावों के मत-पत्र (वोटिंग मशीन)में एक कालम ‘ उपरोक्त में कोई नहीं का भी रखा जाए, जिससे मतदाता यदि किसी भी उल्लिखित उम्मीदवार को उपयुक्त न समझे तो अपने मत को अभिव्यक्त कर सके । उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार तथा निर्वाचन आयोग को नोटिस जारी कर उनकी प्रतिक्रिया चाही है तथा यह भी अपेक्षा की है कि जिन देशों में ऐसी प्रणाली प्रचलित है, वहाँ के अनुभवों के विषय में भी जानकारी दी जाए । वर्तमान मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने स्वयं कुछ दिन पूर्व नकारात्मक वोटिंग प्रणाली लागू करने का सुझाव दिया था । इस प्रणाली को लागू करने के लिए कानून में संशोधन करना होगा, अतः उच्चतम न्यायालय भी केवल अपनी अनुशंसा ही दे सकेगा ।

ज्ञातव्य है कि वर्तमान में प्रचलित मताधिकार प्रणाली के अंतर्गत मत-पत्र (अब वोटिंग मशीन) पर उन उम्मीदवारों के नाम तथा चुनाव चिह्न होते हैं जो उस सीट पर प्रत्याशी होते हैं । मतदाता को उनमें से एक के सामने मोहर लगानी होती है या बटन दबाना होता है ।यदि वह दो या अधिक पर मोहर लगाता है या किसी को वोट नहीं देता है तो उसका मत पत्र अवैध घोषित कर दिया जाता है ।वोटिंग मशीन प्रयुक्त होने के बाद से अवैध वोटों की संख्या में कमी आ गई है ।यदि नकारात्मक मतदान की अनुमति हुई तो मतदाता को लड़ने वाले प्रत्याशियों की अनुपयुक्तता बताने का अवसर मिलेगा तथा यदि बहुमत में ऐसे वोट पड़े तो दुबारा चुनाव प्रक्रिया प्रारंभ करनी पड़ेगी तथा राजनैतिक दलों को नए उम्मीदवार खड़े करने पड़ेंगे । जिन देशों में यह प्रणाली लागू है वहाँ यह भी नियम है कि यदि ‘निगेटिव ‘ वोटों की संख्या जीतने वाले को मिले वोटों से अधिक है, तब भी दुबारा प्रक्रिया प्रारम्भ की जाती है ।इस प्रणाली के लागू होने से राजनैतिक दलों में सतर्कता बढ़ेगी तथा अपनी साख को कायम रखने के लिये साफ़-सुथरी छवि वाले लोगों को टिकट देना अपरिहार्य हो जाएगा ।निश्चित तौर पर यह एक स्वागत योग्य कदम होगा ।

भारतीय संविधान अधिनियमित होने के बाद चौदह आम चुनाव हो चुके हैं तथा देश में बहु-दलीय प्रणाली का प्रजातंत्र है ।प्रारंभ में देश सेवा का व्रत लिए तथा स्वतंत्रता संग्राम के तपे-तपाए नेता राजनीति में थे लेकिन धीरे-धीरे इसमें अपराधी तथा न्यस्त स्वार्थ के तत्वों की घुसपैठ हो गई ।प्रायः सभी दलों में माफिया, भ्रष्टाचारी तथा सार्वजनिक धन-सम्पत्ति पर ऐश करने वाले लोग अपनी पहुँच बना चुके हैं तथा त्यागी,दल की नीतियों में आस्था रखने वाले तथा लोगों को नेतृत्व देने की क्षमता रखने 
वाले हाशिये पर चले गए हैं ।चुनाव हेतु समर्पित कार्यकर्ताओं की बजाय अधिक बोली लगाने वाले लोगों को टिकट दिये जा रहे हैं तथा टिकट वितरण का मुख्य आधार प्रत्याशी की जीतने की क्षमता हो गया है । अभी तक धर्म, जाति,क्षेत्र,भाषा,स्थानीयता आदि के आधार पर वोट मांगे जाते थे,अब बाहुबल तथा धनबल के सहारे चुनावों का प्रबन्धन होता है ।एक सामान्य मतदाता दिग्भ्रमित है तथा “साँपनाथ “ या “नागनाथ “में एक को चुनना उसकी नियति हो चुकी है ।कोई आश्चर्य नहीं कि बहुत से मतदाता सिर्फ़ इसलिए वोट डालने नहीं जाते क्योंकि वे मैदान में लड़ रहे उम्मीदवारों में किसी को भी अपना प्रतिनिधि नहीं चुनना चाहते ।कई बार मत-पत्रों पर संदेश लिखकर अपनी कुंठा और लाचारी का इजहार किया भी जाता है तथा वह मीडिया के द्वारा प्रचारित और प्रसारित होता है लेकिन मत-पत्र तो अवैध हो ही जाता है । नकारात्मक मतदान की अनुमति होने से ऐसी इच्छा को भी वैधानिकता, सम्मान तथा मान्यता प्राप्त होगी ।

संविधान के लागू होने के समय ही सार्वभौमिक बालिग मताधिकार प्रदान करना संविधान निर्माताओं की परिपक्व बुद्धि का परिणाम था ।जनतंत्र का मुख्य आधार सभी नागरिकों का कानून के समक्ष समता का अधिकार होता है ।जनतंत्र अपने शासकों को चुनने के लिए आनुवंशिकता को मान्यता नहीं देता और सम्प्रभु जानता चुनाव द्वारा अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है ।चुनाव जनतंत्र की कुंजी है तथा एक सभ्य राष्ट्र की जागरूकता का प्रतिबिंब है ।पिछले कई आम चुनावों से जो तस्वीर उभर कर आई है वह निराशाजनक है ।वोट डालने के अर्ह लोगो का पंजीकरण नहीं होता तथा बहुधा मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में नहीं मिलते ।जिनके नाम होते भी हैं,उनमें आधे लोग मतदान स्थल तक नहीं जाते ।यदि यह मान भी लिया जाए कि चुनाव स्वतंत्र तथा निष्पक्ष होते हैं तथा बूथ कैप्चरिंग,बोगस वोटिंग तथा दूसरों के नाम पर कोई अन्य वोट नहीं डालता, फिर भी जितने वाला अभ्यर्थी पड़े हुए वोटों का अल्पमत ही पाता है ।इसके अलावा मतदाताओं को प्रत्याशी चुनने का अधिकार नहीं होता क्योंकि वे राजनैतिक दलों के द्वारा थोपे जाते हैं ।देश के प्रायः सत्तर करोड़ मतदाताओं में अधिकांश निरक्षर,गरीब तथा वंचित वर्ग के लोग हैं तथा जनतंत्र में अपनी महती स्थिति से अनभिज्ञ हैं ।

भारतीय चुनाव प्रणाली में सुधार की पड़ताल और अनुशंसा के लिए गोस्वामी समिति (1990);इंद्रजीत गुप्ता समिति (1998) तथा हाल में नियुक्त वेंकट चल्लैया आयोग (2000)ने सिफारिशें की हैं जिन्हें अमली जामा पहनाना अभी शेष है ।कई चुनाव आयुक्त भी समय-समय पर सुझाव देते रहते हैं लेकिन स्थिति बद से बदतर होती जा रही है ।आज स्थिति यह आ गई है कि जेल की चहार दिवारी के अंदर से चुनाव लड़े व जीते जा रहे हैं तथा बाहुबलियों के संसदीय क्षेत्र के मतदाता मीडिया के सामने कुछ भी विपरीत बोलने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं ।द्वि-दलीय प्रणाली विकसित करने,पार्टियों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र मजबूत करने तथा अन्यथा कारणों से चुनाव लड़ने वालों पर रोक लगाने के प्रयास बेमानी सिद्ध हो चुके हैं ।चुनाव से आम आदमी का मोह भंग हो चुका है तथा वह इसी स्थिति को अपनी नियति मान बैठा है ।

थोड़े वर्ष पूर्व उच्चतम न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देश जारी कर यह आवश्यक कराया था कि चुनाव लड़ने वाला उम्मीदवार अपनी चल-अचल सम्पत्ति,शैक्षिक योग्यता तथा न्यायालयों में अपने खिलाफ चल रहे आपराधिक मुकदमों का ब्योरा सार्वजनिक करे ।पिछले चुनावों में दी गई सूचनाओं के आधार पर इनकमटैक्स विभाग सक्रिय हुआ है तथा आय एवं सम्पत्ति पर टैक्स आदि के लिए नोटिसें जारी हुई ।कई विधान सभा चुनावों के दौरान उन प्रत्याशियों पर छापे मारे गए जिनके खिलाफ हत्या,अपहरण,डकैती आदि जघन्य अपराध के मामले दर्ज हैं ।

भारतीय जनतंत्र के त्योहार समझे जाने वाले इन चुनावों में हिंसा,धनबल और बाहुबल का नंगा नाच हो रहा है तथा मतदाताओं की उदासीनता बढ़ रही है,ऐसे में नकारात्मक मतदान कितना सहायक होगा,यह अंतिम रूप से नहीं 
कहा जा सकता ।कई बार गांव-मोहल्ले के अति उत्साही मतदाता चेतावनी लिखवाकर टांग देते हैं तथा चुनाव का बहिष्कार करते हैं जिससे प्रत्याशियों को सबक मिले ।लेकिन इसके भी उत्साह जनक परिणाम नहीं आये हैं ।एक स्वस्थ जनतंत्र की स्थापना के लिए नागरिकों की भागीदारी अत्यंत महत्वपूर्ण है ।उन्हें यह विश्वास होना चाहिये कि उनके मतपत्र में व्यवस्था बदल देने की शक्ति है और उनकी सामूहिक शक्ति के आगे अनुचित साधन अपनाने वाले लोग बौने और कमजोर हैं ।दरअसल समय आ गया है कि मतदान अनिवार्य किया जाए तथा जीतने वाले प्रत्याशी के लिए बहुमत पाना अपरिहार्य हो । सभी राजनैतिक दलों को इस के लिए सहमत होना पड़ेगा ।जब तक मतदान का प्रतिशत नहीं बढ़ता,नकारात्मक मतदान केवल कुछ की इच्छा की अभिव्यक्ति बन कर रह जाएगा तथा बेअसर साबित होगा ।








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Sunday, 29 April 2018

मौलिक अधिकारों में द्वन्द और लोकनीति की कशमकश

मौलिक अधिकारों में द्वंद्व और लोकनीति की कशमकश 



आधार अधिनियम ,२०१६ की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका में संघ सरकार का पक्ष रखते हुए महान्यायवादी के. के. वेणुगोपाल ने सुप्रीमकोर्ट में कहा कि निजता के मौलिक अधिकार तथा भूख,दरिद्रता व बेजारी रहित जीवन यापन के मौलिक अधिकार में यदि द्वन्द हो तो बाद वाले अधिकार को प्रश्ययदेना होगा. वेणुगोपाल का तर्क है कि अमेरिकन सुप्रीमकोर्ट ने १८७६ में मन बनाम इलिनायेस में प्राण तथा दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का निर्वचन करते हुए कहा था कि इसके अंतर्गत मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है और जीवन के वे सब आयाम हैं जिनसे मनुष्य का जीवन सार्थक ,सम्पूर्ण और जीने के योग्य बनता है.महान्यायवादी ने आधार (वित्तीय और अन्य सहायिकियों,प्रसुविधावों और सेवावों का लक्षियत परिणाम )अधिनियम ,२०१६ के पक्ष में दलील देते हुए कहा की भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित प्राण के अर्थ केवल पशुवत अस्तित्व या जीवित रहना नहींहै बल्कि मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है जिसमे रोटी,कपड़ा और मकानके साथ रोज़गार का अधिकार शामिल है.उनका कहना था कि विशेष पहचान संख्या के ज़रिये लोगों को सब्सिडी , लाभों और सेवाओं का कुशल और पारदर्शी वितरण सुनिश्चित हो सकेगा और इसके लिए यदि नागरिकों को अपने अधिकार पर निर्बन्धन सहना पड़े तो वह वर्तमान स्थिति में अनुमन्य होना चाहिए. वैसे भी कोई अधिकार आत्यंतिक नहीं होता और समय काल के अनुसार उस पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं.जब दो मौलिक अधिकारों में टकराव या संघर्ष हो तो उस मौलिक अधिकार को तरजीह दी जानी चाहिए जिसमे लोक कल्याण की नीति हो .


अभी हाल में जस्टिस पुत्तुस्वामी के बहुचर्चित वाद में सुप्रीमकोर्ट की नौ सदस्यीय पीठ ने निजता के अधिकार को मौलिक माना है. आधार पहचान संख्या के लिए उँगलियों तथा आँख की पुतलिओं की छाप लिए जाने को निजता के अधिकार का उल्लंघन करार देते हुए दायर की गयी याचिका  का विरोध करते हुए महान्यायवादी ने अधिनियम द्वारा दी जाने वाली सहायता,सब्सिडी और सेवाओं  को अधिक महत्वपूर्ण मानते हुए अपने तर्क दिए हैं


मौलिक अधिकारों में टकराव में बृहत्तर  लोकनीति को तरजीह देने का यह पहला मामला नहीं है . मुसलमानों में तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करते हुए पुरुषों के धार्मिक स्वतंत्रता  के मौलिक अधिकार तथा स्त्रियों के गरिमा के साथ जीवन यापन के मौलिक अधिकार  के मध्य संघर्ष की स्थिति में महिलाओं के हक़ को प्राथमिकता दी गयी है,क्योंकि तीन तलाक़ का अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही प्राप्त है जो समानता के अधिकार का स्पष्ट अतिक्रमण है.इसी प्रकार हिन्दू विवाह अधिनियम की वैवाहिक संबन्धों की पुनर्स्थापना वाली धारा 9 को भी पति-पत्नी , दोनों,के निजता के अधिकार का उल्लंघन  करने वाला बतलाया गया था लेकिन कुटुंब  विशेषकर बच्चों के लालन पालन के मौलिक अधिकार को प्राथमिकता दी गयी है.सड़क पर नरमुंडों के साथ नाचने-गाने के धर्म के मौलिक अधिकार पर आम जनता विशेषकर स्त्रियों में उत्पन्न होने वाले भय से मुक्ति के अधिकार को तरजीह दी गयी . इसी प्रकार रात में दस बजे से सुबह छह बजे तक लावुडस्पीकर पर धार्मिकता के विभिन्न कार्यक्रमों पर रोक लगाने के नियम को वैध निर्धारित करते हुए   छात्रों, बुजुर्गों और बीमार व्यक्तियों  के शांतिपूर्ण सोने के अधिकार को प्राथमिकता दी गयी है.
मौलिक अधिकारों के मध्य भिड़न्त का क्लासिक वाद मिस्टर एक्स. बनाम जेड. हॉस्पिटल (१९८८ )का है जिसमे अनुच्छेद 19 (1 )(क ) के द्वारा आच्छादित एकान्तता के अधिकार और जानकारी प्राप्त करने के अधिकार के मध्य टक्कर थी.दरअसल एक युवा डॉक्टर की एच आई वी संक्रमित होने की पैथालोजी रिपोर्ट उजागर हो गयी थी तथा इसी कारण उसकी होने वाली वधू ने विवाह करने से इंकार कर दिया था. एड्स से पीड़ित होने के कारण उसे अपनी नौकरी में भी असह्यजता झेलनी पड़ी थी. सुप्रीमकोर्ट ने निर्णय देते हुए कहा था कि जहाँ तक पुरुष को ऐसी जानकारी गोपनीय रखने का मौलिक अधिकार था वहीँ उस स्त्री को यह जानने का भी मौलिक अधिकार था कि उसका होने वाला पति एड्स ऐसे संचारी रोग से पीड़ित तो नहीं है? इन दोनों के मौलिक अधिकारों में संघर्ष की स्थिति में स्त्री का अधिकार प्राथमिकता पायेगा क्योंकि इसमें जनहित शामिल है .यदि बिना जानकारी के ऐसा विवाह हो जाये तो इससे आगे होने वाली पीढ़ी के भी ग्रसित होने का खतरा है.अतः पैथालोजी को जानकारी उजागर करने के लिए दायित्वाधीन नहीं ठहराया जा सकता है.
मौलिक अधिकारों में मुठभेड़ का रोचक मुकदमा  महाराष्ट्र राज्य बनाम इंडियन होटल एंड रेस्टोरेंट्स संघ (२०१३ ) भी है जिसे बाम्बे बार डांस केस के नाम से भी जाना जाता है. महाराष्ट्र  सरकार ने क़ानून बनाकर शराबखानों में डांस करने पर पाबंदी लगा दी थी.इसके औचित्य को सिद्ध करते हुए राज्य सरकार की ओर से कहा गया कि यह डांस अश्लील होते हैं,वैश्यावृत्ति को उकसाते हैं और कामुकता फैलाते हैं. इसके विपरीत होटल मालिकों तथा बार बालाओं के द्वारा कहा गया कि उन्हें रोज़गार करने का मौलिक अधिकार है.विभिन्न पहलुओं पर निर्णय देते हुए सुप्रीमकोर्ट ने अभिनिर्धारित किया था कि सड़कों पर भीख मांगने या अस्वीकार्य माध्यम के द्वारा रोज़गार पाने की तुलना में डांस करके जीवन यापन गुजारना कहीं अधिक श्रेयस्कर है. शीर्ष अदालत का कहना था कि बार बालाओं को जीवन यापन तथा/या पुनर्वास का अधिकार है और यदि राज्य इनकी व्यवस्था नहीं कर पाता तो बार में डांस करने से रोकना अनुचित है. 


एन.डी.तिवारी  बनाम रोहित शेखर (२०१२) में एक पिता-पुत्र के बीच प्रतिष्ठा के मौलिक अधिकारों का द्वन्द था. रोहित शेखर अपने को एन.डी.तिवारी का पुत्र मानता था तथा पितृत्व की पुष्टि के लिए अपने पिता के रक्त के नमूने की मांग कर रहा था जिससे डी. एन. ए. टेस्ट कराया जा सके.उसका कहना था कि पिता का नाम निर्धारण उसके प्रतिष्ठा के अधिकार में शामिल है जबकि तिवारी का तर्क था कि उन्हें रक्त सैम्पुल देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता क्योंकि यह उनकी निजता तथा नेकनामी के अधिकार का अतिक्रमण होगा अर्थात पिता-पुत्र दोनों ही अपनी प्रतिष्ठा तथा नेकनामी के अधिकारों का दावा कर रहे थे. न्यायालय ने पुत्र के अधिकार को अधिक शक्तिशाली पाया क्योंकि इससे उसकी समाज में प्रास्थिति स्थापित होती है जो लोक नीति के अनुरूप है.


चुनाव लड़ने वाले अभ्यर्थियों के लिए परचा भरते समय अपनी शयक्षित योग्यता, अस्तियों तथा दायित्यों का विवरण तथा खिलाफ चल रहे आपराधिक मुकदमों का शपथपत्र अनिवार्य करने के सुप्रीमकोर्ट के निर्णय के समय भी अभ्यर्थी की निजता तथा नागरिकों के अपने होने वाले प्रतिनिधि के बारे में जानकारी प्राप्त करने के मौलिक अधिकारों में धर्मसंकट के प्रश्न थे लेकिन शीर्ष न्यायालय ने पी.यू.सी.एल. बनाम भारत संघ (२००३) में जानकारी के अधिकार को लोकहित में प्राथमिकता पूर्ण  माना था तथा लोक प्रतिनिधित्व कानून में आवश्यक संशोधन करने का निर्देश दिया था.


दरअसल, मौलिक अधिकारों में द्वन्द के प्रश्न संविधानिक दुविधा से उदभूत हैं जब अधिकारों में सामंजस्य/ संतुलन करते हुए उनमें स्पर्धा तथा/या असमंजस के अंश प्रस्फुटित होते हैं.वाक स्वतंत्रता तथा निजता,समता तथा भेदभाव एवं धार्मिक स्वतंत्रता बनाम स्त्रियों के अधिकारों के मध्य ऐसे टकरावों के प्रकरण न्यायालय की दहलीज पर गए हैं. विधि के सिद्धांतों तथा संविधानिक दर्शन के मध्य संतुलन आसान नहीं है और यह तब और भी मुश्किल है जब एक ही पटल पर विपरीत ध्रुव के अधिकारों का दावा किया जाये. लोकनीति एक फिसलन भरी राह है तथा समय,काल तथा परिवेश में बदलती रहती है. किसी स्थिति विशेष में एक को प्राथमिकता देकर दूसरे को अधीनस्थ किया जा सकता है,लेकिन एक सर्वमान्य तथा तार्किक हल असंभव नहीं तो दुरूह अवश्य है.लेकिन इससे निराश होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जब हम यह जान जाते हैं कि इन अधिकारों में वास्तविक द्वन्द क्या है तब हमें निश्चयात्मक निर्णय पर पहुँचने में देर नहीं लगती. जनतंत्र में मानवाधिकारों तथा मौलिक अधिकारों के बढते कैनवास को संविधान में आत्मसात करने के लिए न्यायपालिका ने अर्थान्वयन के नये सिद्धांत प्रतिपादित कर लिए हैं और यह एक स्वागत योग्य कदम है.

डा. निरुपमा अशोक
प्राचार्य, भगवानदीन आर्य कन्या महाविद्यालय , लखीमपुर खीरी (उ०प्र०)

Tuesday, 17 April 2018

केरल अध्यादेश पर रोक से उपजे साख,औचित्य तथा साम्विधानिकता के प्रश्न!

केरल अध्यादेश पर रोक से उपजे साख,औचित्य तथा सांविधानिकता के प्रश्न 




अभी हाल में सुप्रीमकोर्ट ने  केरल सरकार द्वारा प्रख्यापित केरल प्राइवेट कॉलेज ( रेगुलेशन ऑफ़ एड्मिसन इन मेडिकल कॉलेज ) अध्यादेश, २०१७  पर स्थगन आदेश देकर इसके क्रियान्वयन पर रोक लगा दी है. सत्र २०१६-१७ में राज्य के कुछ प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों ने विधि विरुद्ध प्रवेश किये थे जिसे भारतीय आयुष परिषद् की प्रवेश अधिवीक्षण समिति ने निरस्त कर दिया था. केरल हाईकोर्ट नें भी इन प्रवेशों को कानून सम्मत नहीँ मना था तथा अपील में सुप्रीमकोर्ट  ने भी हाईकोर्ट के निर्णय पर मोहर लगा दी थी. लेकिन उच्चतर न्यायपालिका के स्पष्ट निर्णयों को दरकिनार करते हुए राज्य सरकार ने राज्यपाल के हस्ताक्षरों से उक्त अध्यादेश जारी कर दिया जिसको असाम्विधानिक मानते हुए सुप्रीमकोर्ट की खंड पीठ ने रोक लगा दी है.ज्ञातव्य है कि केरल में इस समय भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सथासिवम राज्यपाल हैं.विधि से सरोकार रखने वाले क्षेत्रोंमें आश्चर्य मिश्रित प्रतिक्रिया है कि मुख्य न्यायाधीश रहे राज्यपाल ने ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने से पूर्व विधिक स्थिति की पूरी जानकारी क्यों नहीं ली ?


सांविधानिक भटकाव की यह पहली घटना नहीं है.तमिलनाडु की राज्यपाल रही जस्टिस फातिमा बीवी को भी २००१में जयललिता को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के कारण विवाद हुआ था जिसकी परिणित अंततः उनके इस्तीफे से हुई थी. दरअसल अन्नाद्रमुक पार्टी ने मई २००१में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया था लेकिन निरर्हता के चलते जयललिता स्वयं विधानमंडल की सदस्य चुने जाने के अयोग्य थीं. इसके बावजूद राज्यपाल फातिमा बीवी ने उन्हें मुख्य मंत्री की शपथ दिला दी थी.इस नियुक्ति को सुप्रीमकोर्ट ने अवैध ठहराया था तथा राज्यपाल के इस वैवेकिक कार्य को संविधान के विपरीत करार दिया था. इन विवादों के चलते जस्टिस फातिमा बीवी को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा था .


उच्चतर न्यायपालिका के जजों को राज्यपाल ऐसे कार्यपालिका के पदों पर नियुक्ति को लेकर आलोचना-प्रत्यालोचना होती रही है . कहा जाता है कि कम से कम सुप्रीमकोर्ट के रिटायर जजों को ऐसे पदों पर नियुक्ति लेने से परहेज करना चाहिए क्योंकि इन पदों पर कार्य करते हुए उन्हें तात्कालिक राज्य सरकार के निर्णयों को लागू करना पड़ता है जिसमे अध्यादेश प्रख्यापन तथा/या मुख्यमंत्री की नियुक्ति ऐसी शक्तियों का प्रयोग करना शामिल है और इनमे सांविधानिक अनौचित्यता होने पर मीडिया तथा राजनैतिक विश्लेषकों की तीखी आलोचना का सामना करना पड़ता है.

अनुच्छेद १२४(७)के अंतर्गत प्रावधानित हैकि कोई व्यक्ति, जिसने उच्चतम् न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पद धारण किया है, भारत के भीतर किसी न्यायालय में या किसी अधिकारी के समक्ष अभिवचन  या कार्य नहीं करेगा. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के भी स्थायी न्यायाधीश रहने के पश्चात् विधि व्यवसाय पर निर्बन्धन है. लेकिन इन न्यायाधीशों के संवैधानिक पद नियुक्ति पर कोई रोक नहीं है. हरगोविंद पन्त बनाम रघुकुल तिलक (१९७९)में  में सुप्रीमकोर्ट ने अभिनिर्धारित किया था कि राज्यपाल का पद भारत सरकार के अधीन नहीं है .राज्यपाल का पद एक स्वतंत्र सांविधानिक पद है जो न तो संघ सरकार के नियंत्रण में है और न उसके अधीनस्थ है.


न्यायाधीशों के सेवानिवृत्ति के पश्चात् किसी न्यायालय या अधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य करने पर निर्बन्धन के पीछे लोकनीति है जो व्यक्ति उच्चतर न्यायपालिका का सदस्य रहा है, उसके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत विधि बन जाते हैं तथा अभिलेख न्यायालय होने के कारण इनके द्वारा दिए गए निर्णय वर्षों तक नज़ीर बने रहते हैं. अतः यदि वे किसी मोवक्किल के पक्ष में कोई उलट बहस करते हैं तो न्यायालय के समक्ष धर्म संकट उत्पन्न हो जाएगा.

वैसा ही उलझाव उन स्थितियों में भी उत्पन्न होता है जब ये न्यायाधीश न्यायपालिका से इतर किसी पद का निर्वहन करते हैं. मुख्यमंत्री की नियुक्ति पर विवेकाधिकार पर बहुत सारे निर्वचन उपलब्ध हैं और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश रहे राज्यपाल से इस विवेकाधिकार के प्रयोग पर आम लोगो में सांविधानिक मर्यादा रक्षा हेतु अतिरिक्त अपेक्षाएं होना स्वाभाविक हैं. एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाना जो पद के लिए अर्हता ही न रखता हो, सामान्य भूल नहीं मानी जा सकती है.इसी प्रकार ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करना जो सुप्रीमकोर्ट के स्वयं के निर्णय को जानबूझ कर पलटता हो, एक आम नागरिक में न्यायालय के प्रति सम्मान में न्यूनता लाएगा.
भारतीय संविधान शक्ति प्रथक्करण सिद्धांत को विधायिका तथा कार्यपालिका के मध्य लागू करने में भले ही शिथिल हो लेकिन न्यायपालिका की स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता के प्रति अतिसंवेदनशील है. न्यायाधीशों के निश्छल,निष्पक्ष तथा निर्विकार व्यक्तित्व के कारण ही उन्हें कार्यपालिका में कोई पद नहीं दिए जाते. कई बार जज लोग स्वयं भी विनयपूर्वक अस्वीकार कर देते हैं जिससे उन्हें असुविधाजनक स्थितियों का सामना न करना पड़े. वैसे भी विधि की अनभिज्ञता तो किसी को भी सुरक्षा नहीं देती, न्यायमूर्तियों से तो अतिरिक्त सतर्कता की दरकार होती है!


स्वतंत्रता के बाद कई पूर्व न्यायाधीशों ने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ा है लेकिन किसी भी सत्ताधारी राजनैतिक दल ने समर्थन नहीं किया और चुनाव अंततः प्रतीकात्मक ही रहा.जस्टिस हिदायतुल्लाह को उपराष्ट्रपति पद पर  ही संतोष करना पड़ा. इसका करण भी स्पष्ट है. राजनैतिक दल नहीं चाहते कि उस पद पर बैठा व्यक्ति उनसे सवाल जवाब करे. जस्टिस सथासिवम द्वारा जब राज्यपाल का पद स्वीकार किया गया था तब कतिपय क्षेत्रों में प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई थी. उनके द्वारा प्राख्यापित अध्यादेश पर रोक लगाने से सुप्रीमकोर्ट की साख तो बच गयी लेकिन राज्यपाल पद की ऐसी किरकिरी हुई है जो भविष्य में याद रखी जायेगी.


Sunday, 18 March 2018

सरकारी नौकरी हेतु अनिवार्य सैन्य सेवा की विधिमान्यता

सरकारी नौकरी हेतु अनिवार्य सैन्य सेवा की अनिवार्यता 

रक्षामंत्रालय से सम्बंधित संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की हैकि ऐसे लोग जो सरकारी नौकरी पाना चाहते हैं, उनके लिए पांच साल की सैन्य सेवा अनिवार्य की जाये. समिति की अनुशंसा है कि केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा नयी भर्ती में यह नियम लागू किया जाये. समिति ने थल,जल तथा वायु सेना में योग्य अधिकारियों तथा कर्मकारों की भरी कमी पर चिंता व्यक्त करते हुए आशा व्यक्त की है कि ऐसा करने पर न केवल सेना में मानव संसाधन की संख्या बढ़ेगी वरन सिविल सेवाओं में देश प्रेम , अनुशासन  तथा समर्पण का भाव जाग्रत होगा तथा प्रशासनिक अधिकारी बिना किसी डर या दबाव के काम करने को उद्द्यत होंगे. सेना  की दुर्गम सेवाओं का एहसास होगा तथा सैनकों के प्रति श्रद्धा बढ़ेगी. अभी तक सिविल सेवाओं के लिए ऐसी कोई शर्त तो नहीं है लेकिन शार्ट सर्विस कमीशन पाए तथा भूतपूर्व सैनिकों/पाल्यों के लिए एक सीमित प्रतिशत तक स्थान आरक्षित हैं.


मक्सिको समेत कई देशों में 18 से 26 वर्ष की आयु के पुरुषों/महिलाओं को अनिवार्य सैन्य सेवा देनी होती है.अन्यान्य देशों में इनको पंजीकरण कराना होता है,20 दिन से लेकर तीन वर्ष की ट्रेनिंग लेनी पड़ती है तथा आवश्यकता/आपातकाल में सैन्य सेवा करनी होती है.कुछ अन्य देशों में ऐसी सेवा अनिवार्य तो नहीं है लेकिन एक आकर्षक विकल्प के रूप में स्थापित है.

संयुक्त राज्य अमेरिका में गृहयुद्ध (१८६३)के समय सैन्य सेवा अनिवार्य की गयी थी लेकिन तीन सौ डालर जुर्माना देकर कोई अपनी जगह प्रतिस्थानी दे सकता था.इस छूट का दुरुपयोग करते हुए कईयों ने अपनी जगह अपराधियों तथा विकलांगों को भरती करा दिया.प्रथम विश्व युद्ध (१९१७), कोरियाई तथा विएतनाम युद्ध के समय जबरदस्ती भरती की प्रक्रिया पुनः अपनाई गयी.जिमी कार्टर के राष्ट्रपतित्व काल (१९७९) में कानून पारित 26 वर्ष की आयु तक के लोगों के लिए भरती पंजीकरण अनिवार्य कियागया जिससे सेना को आपातकाल में मानव संसाधन उपलब्ध रहे.पंजीकरण न कराने पर जुर्माने की व्यवस्था है लेकिन हाल के वर्षों में किसीको दोषी करार नहीँ कियागया है. पंजीकृत व्यक्तियों को फेडरल तथा स्टेट विश्वविद्यालयों में शुल्कों में छूट होती है , ड्राइविंग लाइसेंस आसानी से बनते हैं तथा ऐसी ही अनेक अन्य सुविधाएँ दी जाती हैं.जो लोग मिलिट्री सर्विस के बाद स्वर्गवासी होते हैं उनके शव नेशनल सिमिट्री में दफनाये जाते हैं और यह अत्यंत सम्मान का  प्रतीक माना जाता है.


दूसरी तरफ चीन ,जिसे कि विश्व की सेनाओं में सर्वाधिक संख्याबल वाला बतलाया जाता है, में यों तो सार्वभौमिक सैन्य सेवा अनिवार्य है लेकिन यह केवल सिद्धांत में है तथा अत्यधिक जनसँख्या होने के कारण इच्छुक लोगों को भी सेवारत नहीं किया जा पाता.


भारत में सैन्य सेवा अनिवार्य नहीं है लेकिन इसको एक अच्छे वैकल्पिक कैरियर के रूप में जाना/प्रचारित किया जाता है. मौलिक अधिकारों के भाग 3 में अनुच्छेद 23शोषण के विरुद्ध अधिकार देता हैं तथा दुर्व्यापार, बेगार और सभी प्रकार के बलात श्रम को प्रतिषिद्ध करता है लेकिन इस अनुच्छेद में ऐसी परिस्थितियों पर ध्यान दिया गया है जिनमे राज्य को लोक नियोजन के लिए अनिवार्य सेवा लेनी पड़ेगी.

देश की रक्षा के लिए सेना में अनिवार्य भर्ती या कठिन परिस्थितियों में पुलिस की सहायता करने का आदेश देना बलात श्रम नहीं है क्योंकि वह अनु०23 (2) के अधीन अनुज्ञेय है. यह भी प्रावधानित है ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म,मूलवंश,जाति या वर्ग या इनमे से किसीके आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा.अनुच्छेद 33, सशस्त्र  बलों के सदस्यों तथा उनके अनुषंगी संगठनो को मौलिक अधिकारों में कमी करने की शक्ति संसद को प्रदान करता है.भारत संघ बनाम एल.डी.बालम सिंह (2002)के वाद में सुप्रीमकोर्ट ने अभिनिर्धारित किया है कि अनु० 33 मूल अधिकारों का अपवाद है. कार्य पालिका के कुछ अंग ऐसे हैं जहाँ स्वतंत्रता को नियंत्रित करना आवश्यक है. सैन्यबल,पुलिस,आसूचना (इंटेलिजेंस)अभिकरण ऐसे ही संगठन हैं जहाँ स्वतंत्रता को सीमित करना आवश्यक है . यह अनुच्छेद संसद को यह शक्ति देता हैकि वह विधि बनाकर यह सीमा तय करे जिसके भीतर अनु० 33 में विनिर्दिष्ट संगठनों के सदस्यों को मूल अधिकार उपलब्ध होंगे.
सेना अधिनियम,नौसेना अधिनियम , वायुसेना अधिनियम,सीमा सुरक्षा बल अधिनियम और इसी प्रकार के अन्य अधिनियम अनु० 19(1)(ग) के अधीन संगम के अधिकार को सीमित करते हैं.पुलिस बल (अधिकारों का निर्बन्धन) अधिनियम १९६६ में यह घोषित किया गया है कि पुलिस बल का कोई सदस्य किसी व्यवसाय संघ या श्रमिक संघ या राजनैतिक संगम कासदस्य नहीं हो सकता.बताया जाता हैकि १९७३ में उ०प्र० में पी.ए.सी.के जवानों ने अपना संघ बनाने की मांग को लेकर आन्दोलन किया था जिसे सख्ती से कुचल दिया गया था. इसी कारण विश्वविद्यालय में भीषण आगजनी हुई थी.


अनु० 34 ऐसी परिस्थिति अनुध्यात करता है जहाँ देश के किसी भाग में सेना विधि( मार्शल लॉ) घोषित की गयी हो . यदि सेना विधि के दौरान व्यवस्था बनाये रखने में कोई अवैध बात की गयी है तो संसद को यह शक्ति दी गयी हैकि वह क्षतिपूर्ति अधिनियम पारित कर सकेगी. सेना विधि ,अनु० 352 के अधीन की गयी उद्घोषणा से भिन्न है.


संविधान के भाग 4क में वर्णित मूल कर्तव्यों में जहाँ प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य बतलाया गया है कि संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों , संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे,भारत की प्रभुता ,एकता और अखंडता की रक्षा करे तथा यह भी स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि "देश की रक्षा करे तथा आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे".

"जननी जन्म भूमिश्च , स्वर्गादपि च गरीयसी" को हृदयंगम  करने वाली भारतीय मनीषा में सैन्य सेवा मात्र कैरियर नहीं बल्कि जीवन को सफल बनाने का एक साधन है.भारतीय सेनाएं शौर्य और वीरता का प्रतिमान हैं.हमारे यहाँ मद्रास,पंजाब,राजपुताना,नगा,डोगरा,जाट, सिख, कुमांऊतथा गढ़वाल रायफल्स ऐसी रेजिमेंट हैं जो साहस,कर्तव्य निष्ठा और दिलेरी के लिए विश्व विख्यात हैं.इनमे विशेष बात यह भी है कि कई परिवार और खानदान पुश्तों दर पुश्तों से अपने पुत्रों को सेना में भरती कराकर गर्व का अनुभव करते हैं.


सैन्य शिक्षा देने के लिए सैनिक स्कूलों के साथ-साथ राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज ,नेशनल डिफेन्स अकादमी , कॉलेज ऑफ़ डिफेन्स मैनेजमेंट, डिफेन्स सर्विसेस स्टाफ कॉलेज ऐसे प्रख्यात संस्थाओं के अलावा गुडगाँव में इंडियन नेशनल डिफेन्स यूनिवर्सिटी की स्थापना हो चुकी है जो सेना पाठ्यक्रम से सम्बंधित यू0जी० /पी० जी० तथा रिसर्च कार्यक्रम चलायेगी , सन १९६२ के चीन युद्ध के बाद देश की सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबंद करने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी.उसी के अंतर्गत दसवीं के बाद एन.सी.सी. की ट्रेनिंग लागूं की गयी थी जिसमे थल,नभ तथा नौ सेना का प्रारंभिक सैद्धांतिक तथा प्रायोगिक ज्ञान दिया जाता है.एन.सी.सी. का " बी" और  " सी" प्रमाण पत्र धारकों को सेना तथा अन्य सेवाओं एवं इंजीनियरिंग/मेडिकल समेत विश्वविद्यालयी पाठ्य क्रमों में प्रवेश में वरीयता /वेटज दिया जाता है.सैन्य सेवा की शर्तें आकर्षक बनाई गयीं हैं जिससे नवयुवक/युवतियां इसमें शामिल हों.हाल में महिलाओं को भी स्थाई कमीशन दिया जाना अनुमन्य हुआ है. अब तो फाइटर प्लेन चलाने के लिए भी महिलायें चयनित हो चुकी हैं.

 
इधर हाल के वर्षों में सेना के तीनो अंग मानव संसाधन की कमी से जूझ रहे हैं.थल सेना से इस्तीफा देकर प्राइवेट सिक्यूरिटी एजेंसी चला रहे हैं तो नभ सेना से अलग हो कर प्राइवेट प्लेन चला रहे हैं.लोग अपने पाल्यों को उच्च शिक्षा दिलाकर मल्टीनेशनल कंपनियों,कार्पोरेशनों तथा कई बार विदेश में नौकरी कराने के लिए उद्द्यत हो रहे हैं.जनसँख्या नियंत्रण कार्यक्रम अपनाने के कारण एक-दो बच्चे हैं अतः उन्हें सेना की जोखिम भरी सेवा से विरत रखते हैं.उधर सिविल सेवाओं में अनुशासन ,उत्तरदायित्व तथा जवाबदेही में कमी आने से स्तरहीनता दिखलाई पड़ रही है.इन्ही सब कारणों से संसदीय समिति ने उक्त सिफारिश की है.
एक जनतांत्रिक देश में सैन्य तथा सिविल सेवाएँ अलग-अलग हैं तथा सामान्यतः सेना को नागरिक सेवाओं से दूर रखना ही बेहतर होता है.अत्यंत आपात स्थिति में ही सेना की सहायता ली जानी चाहिए.इससे सेना तथा नागरिक प्रशासन में सामंजस्य रहेगा तथा दोनों का मनोबल ऊँचा रहेगा.संविधान निर्माताओं ने इस बात का विशेष ध्यान रखा था. संविधान ने कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित करते हुए संघ के रक्षाबलों का सर्वोच्च समादेश भी निहित किया है लेकिन इसका प्रयोग विधि द्वारा नियमित किया है.देश में सेना ही सत्ता पर काबिज़ न हो जाये, इसके लिए भी पर्याप्त रक्षोपाय किये गए हैं.


काम का अधिकार मूल अधिकार न होकर राज्य के नीति निदेशकों का ही हिस्सा हैं जिसमे समान कार्य के लिए सामान वेतन के साथ पुरुष और स्त्री , सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त कराने का समादेश है.संसद तथा राज्य   विधान मंडल विधि बना कर  सरकारी सेवाओं में भरती के लिए पांच साल की अनिवार्य सैन्य सेवा का प्रावधान कर सकते हैं.मेडिकल में प्रवेश के लिए गाँव में पांच वर्ष तक अनिवार्य सेवा की शर्तें विधिमान्य हैं.यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन हैकि एक बार सेना की सेवा करने के बाद उस व्यक्ति पर सेना का अनुशासन हावी रहेगा जो समय के साथ गहराता जायेगा.सेना-सिविलियंस का गठजोड़ प्रजातान्त्रिक मूल्यों,और प्रतिबद्धताओं पर भारी  पड़ सकता है.

एक बात और है. अभी सेना में किसी प्रकार का आरक्षण नहीं है जबकि सरकारी नौकरियों में यह पचास प्रतिशत तक है.अनिवार्य सैन्य सेवा की शर्त अधिरोपित करने से संविधान की उद्देशिका में वर्णित सामजिक न्याय पाने के लिए भी नये प्रतिमान निश्चित करने होंगे.संसदीय समिति की सिफारिशें स्वागत योग्य हैं लेकिन गहन विचार -विमर्श के उपरान्त ही इस पर अमल अपेक्षित है.