अभी हाल में सुप्रीमकोर्ट ने केरल सरकार द्वारा प्रख्यापित केरल प्राइवेट
कॉलेज ( रेगुलेशन ऑफ़ एड्मिसन इन मेडिकल कॉलेज ) अध्यादेश, २०१७ पर स्थगन आदेश देकर इसके क्रियान्वयन पर रोक
लगा दी है. सत्र २०१६-१७ में राज्य के कुछ प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों ने विधि
विरुद्ध प्रवेश किये थे जिसे भारतीय आयुष परिषद् की प्रवेश अधिवीक्षण समिति ने
निरस्त कर दिया था. केरल हाईकोर्ट नें भी इन प्रवेशों को कानून सम्मत नहीँ मना था
तथा अपील में सुप्रीमकोर्ट ने भी हाईकोर्ट
के निर्णय पर मोहर लगा दी थी. लेकिन उच्चतर न्यायपालिका के स्पष्ट निर्णयों को
दरकिनार करते हुए राज्य सरकार ने राज्यपाल के हस्ताक्षरों से उक्त अध्यादेश जारी कर
दिया जिसको असाम्विधानिक मानते हुए सुप्रीमकोर्ट की खंड पीठ ने रोक लगा दी है.ज्ञातव्य
है कि केरल में इस समय भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सथासिवम राज्यपाल
हैं.विधि से सरोकार रखने वाले क्षेत्रोंमें आश्चर्य मिश्रित प्रतिक्रिया है कि
मुख्य न्यायाधीश रहे राज्यपाल ने ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने से पूर्व विधिक स्थिति
की पूरी जानकारी क्यों नहीं ली ?
सांविधानिक भटकाव की यह पहली घटना नहीं है.तमिलनाडु की
राज्यपाल रही जस्टिस फातिमा बीवी को भी २००१में जयललिता को मुख्यमंत्री पद की शपथ
दिलाने के कारण विवाद हुआ था जिसकी परिणित अंततः उनके इस्तीफे से हुई थी. दरअसल
अन्नाद्रमुक पार्टी ने मई २००१में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत
प्राप्त किया था लेकिन निरर्हता के चलते जयललिता स्वयं विधानमंडल की सदस्य चुने
जाने के अयोग्य थीं. इसके बावजूद राज्यपाल फातिमा बीवी ने उन्हें मुख्य मंत्री की
शपथ दिला दी थी.इस नियुक्ति को सुप्रीमकोर्ट ने अवैध ठहराया था तथा राज्यपाल के इस
वैवेकिक कार्य को संविधान के विपरीत करार दिया था. इन विवादों के चलते जस्टिस
फातिमा बीवी को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा था .
उच्चतर न्यायपालिका के जजों को राज्यपाल ऐसे कार्यपालिका के
पदों पर नियुक्ति को लेकर आलोचना-प्रत्यालोचना होती रही है . कहा जाता है कि कम से
कम सुप्रीमकोर्ट के रिटायर जजों को ऐसे पदों पर नियुक्ति लेने से परहेज करना चाहिए
क्योंकि इन पदों पर कार्य करते हुए उन्हें तात्कालिक राज्य सरकार के निर्णयों को लागू
करना पड़ता है जिसमे अध्यादेश प्रख्यापन तथा/या मुख्यमंत्री की नियुक्ति ऐसी
शक्तियों का प्रयोग करना शामिल है और इनमे सांविधानिक अनौचित्यता होने पर मीडिया
तथा राजनैतिक विश्लेषकों की तीखी आलोचना का सामना करना पड़ता है.
अनुच्छेद १२४(७)के अंतर्गत प्रावधानित हैकि कोई व्यक्ति,
जिसने उच्चतम् न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पद धारण किया है, भारत के भीतर
किसी न्यायालय में या किसी अधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य नहीं करेगा. उच्च न्यायालय के
न्यायाधीशों के भी स्थायी न्यायाधीश रहने के पश्चात् विधि व्यवसाय पर निर्बन्धन
है. लेकिन इन न्यायाधीशों के संवैधानिक पद नियुक्ति पर कोई रोक नहीं है. हरगोविंद
पन्त बनाम रघुकुल तिलक (१९७९)में में
सुप्रीमकोर्ट ने अभिनिर्धारित किया था कि राज्यपाल का पद भारत सरकार के अधीन नहीं
है .राज्यपाल का पद एक स्वतंत्र सांविधानिक पद है जो न तो संघ सरकार के नियंत्रण
में है और न उसके अधीनस्थ है.
न्यायाधीशों के सेवानिवृत्ति के पश्चात् किसी न्यायालय या
अधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य करने पर निर्बन्धन के पीछे लोकनीति है जो
व्यक्ति उच्चतर न्यायपालिका का सदस्य रहा है, उसके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत
विधि बन जाते हैं तथा अभिलेख न्यायालय होने के कारण इनके द्वारा दिए गए निर्णय
वर्षों तक नज़ीर बने रहते हैं. अतः यदि वे किसी मोवक्किल के पक्ष में कोई उलट बहस
करते हैं तो न्यायालय के समक्ष धर्म संकट उत्पन्न हो जाएगा.
वैसा ही उलझाव उन स्थितियों में भी उत्पन्न होता है जब ये
न्यायाधीश न्यायपालिका से इतर किसी पद का निर्वहन करते हैं. मुख्यमंत्री की
नियुक्ति पर विवेकाधिकार पर बहुत सारे निर्वचन उपलब्ध हैं और उच्चतम न्यायालय के
न्यायाधीश रहे राज्यपाल से इस विवेकाधिकार के प्रयोग पर आम लोगो में सांविधानिक
मर्यादा रक्षा हेतु अतिरिक्त अपेक्षाएं होना स्वाभाविक हैं. एक ऐसे व्यक्ति को
मुख्यमंत्री की शपथ दिलाना जो पद के लिए अर्हता ही न रखता हो, सामान्य भूल नहीं मानी
जा सकती है.इसी प्रकार ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करना जो सुप्रीमकोर्ट के स्वयं
के निर्णय को जानबूझ कर पलटता हो, एक आम नागरिक में न्यायालय के प्रति सम्मान में न्यूनता
लाएगा.
भारतीय संविधान शक्ति प्रथक्करण सिद्धांत को विधायिका तथा
कार्यपालिका के मध्य लागू करने में भले ही शिथिल हो लेकिन न्यायपालिका की
स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता के प्रति अतिसंवेदनशील है. न्यायाधीशों के
निश्छल,निष्पक्ष तथा निर्विकार व्यक्तित्व के कारण ही उन्हें कार्यपालिका में कोई
पद नहीं दिए जाते. कई बार जज लोग स्वयं भी विनयपूर्वक अस्वीकार कर देते हैं जिससे
उन्हें असुविधाजनक स्थितियों का सामना न करना पड़े. वैसे भी विधि की अनभिज्ञता तो
किसी को भी सुरक्षा नहीं देती, न्यायमूर्तियों से तो अतिरिक्त सतर्कता की दरकार
होती है!
स्वतंत्रता के बाद कई पूर्व न्यायाधीशों ने राष्ट्रपति पद
के लिए चुनाव लड़ा है लेकिन किसी भी सत्ताधारी राजनैतिक दल ने समर्थन नहीं किया और
चुनाव अंततः प्रतीकात्मक ही रहा.जस्टिस हिदायतुल्लाह को उपराष्ट्रपति पद पर ही संतोष करना पड़ा. इसका करण भी
स्पष्ट है. राजनैतिक दल नहीं चाहते कि उस पद पर बैठा व्यक्ति उनसे सवाल जवाब करे.
जस्टिस सथासिवम द्वारा जब राज्यपाल का पद स्वीकार किया गया था तब कतिपय क्षेत्रों
में प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई थी. उनके द्वारा प्राख्यापित अध्यादेश पर रोक लगाने
से सुप्रीमकोर्ट की साख तो बच गयी लेकिन राज्यपाल पद की ऐसी किरकिरी हुई है जो
भविष्य में याद रखी जायेगी.
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