Sunday, 29 April 2018

मौलिक अधिकारों में द्वन्द और लोकनीति की कशमकश




आधार अधिनियम ,२०१६ की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका में संघ सरकार का पक्ष रखते हुए महान्यायवादी के. के. वेणुगोपाल ने सुप्रीमकोर्ट में कहा कि निजता के मौलिक अधिकार तथा भूख,दरिद्रता व बेजारी रहित जीवन यापन के मौलिक अधिकार में यदि द्वन्द हो तो बाद वाले अधिकार को प्रश्ययदेना होगा. वेणुगोपाल का तर्क है कि अमेरिकन सुप्रीमकोर्ट ने १८७६ में मन बनाम इलिनायेस में प्राण तथा दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का निर्वचन करते हुए कहा था कि इसके अंतर्गत मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल है और जीवन के वे सब आयाम हैं जिनसे मनुष्य का जीवन सार्थक ,सम्पूर्ण और जीने के योग्य बनता है.महान्यायवादी ने आधार (वित्तीय और अन्य सहायिकियों,प्रसुविधावों और सेवावों का लक्षियत परिणाम )अधिनियम ,२०१६ के पक्ष में दलील देते हुए कहा की भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित प्राण के अर्थ केवल पशुवत अस्तित्व या जीवित रहना नहींहै बल्कि मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है जिसमे रोटी,कपड़ा और मकानके साथ रोज़गार का अधिकार शामिल है.उनका कहना था कि विशेष पहचान संख्या के ज़रिये लोगों को सब्सिडी , लाभों और सेवाओं का कुशल और पारदर्शी वितरण सुनिश्चित हो सकेगा और इसके लिए यदि नागरिकों को अपने अधिकार पर निर्बन्धन सहना पड़े तो वह वर्तमान स्थिति में अनुमन्य होना चाहिए. वैसे भी कोई अधिकार आत्यंतिक नहीं होता और समय काल के अनुसार उस पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं.जब दो मौलिक अधिकारों में टकराव या संघर्ष हो तो उस मौलिक अधिकार को तरजीह दी जानी चाहिए जिसमे लोक कल्याण की नीति हो .


अभी हाल में जस्टिस पुत्तुस्वामी के बहुचर्चित वाद में सुप्रीमकोर्ट की नौ सदस्यीय पीठ ने निजता के अधिकार को मौलिक माना है. आधार पहचान संख्या के लिए उँगलियों तथा आँख की पुतलिओं की छाप लिए जाने को निजता के अधिकार का उल्लंघन करार देते हुए दायर की गयी याचिका  का विरोध करते हुए महान्यायवादी ने अधिनियम द्वारा दी जाने वाली सहायता,सब्सिडी और सेवाओं  को अधिक महत्वपूर्ण मानते हुए अपने तर्क दिए हैं


मौलिक अधिकारों में टकराव में बृहत्तर  लोकनीति को तरजीह देने का यह पहला मामला नहीं है . मुसलमानों में तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करते हुए पुरुषों के धार्मिक स्वतंत्रता  के मौलिक अधिकार तथा स्त्रियों के गरिमा के साथ जीवन यापन के मौलिक अधिकार  के मध्य संघर्ष की स्थिति में महिलाओं के हक़ को प्राथमिकता दी गयी है,क्योंकि तीन तलाक़ का अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही प्राप्त है जो समानता के अधिकार का स्पष्ट अतिक्रमण है.इसी प्रकार हिन्दू विवाह अधिनियम की वैवाहिक संबन्धों की पुनर्स्थापना वाली धारा 9 को भी पति-पत्नी , दोनों,के निजता के अधिकार का उल्लंघन  करने वाला बतलाया गया था लेकिन कुटुंब  विशेषकर बच्चों के लालन पालन के मौलिक अधिकार को प्राथमिकता दी गयी है.सड़क पर नरमुंडों के साथ नाचने-गाने के धर्म के मौलिक अधिकार पर आम जनता विशेषकर स्त्रियों में उत्पन्न होने वाले भय से मुक्ति के अधिकार को तरजीह दी गयी . इसी प्रकार रात में दस बजे से सुबह छह बजे तक लावुडस्पीकर पर धार्मिकता के विभिन्न कार्यक्रमों पर रोक लगाने के नियम को वैध निर्धारित करते हुए   छात्रों, बुजुर्गों और बीमार व्यक्तियों  के शांतिपूर्ण सोने के अधिकार को प्राथमिकता दी गयी है.
मौलिक अधिकारों के मध्य भिड़न्त का क्लासिक वाद मिस्टर एक्स. बनाम जेड. हॉस्पिटल (१९८८ )का है जिसमे अनुच्छेद 19 (1 )(क ) के द्वारा आच्छादित एकान्तता के अधिकार और जानकारी प्राप्त करने के अधिकार के मध्य टक्कर थी.दरअसल एक युवा डॉक्टर की एच आई वी संक्रमित होने की पैथालोजी रिपोर्ट उजागर हो गयी थी तथा इसी कारण उसकी होने वाली वधू ने विवाह करने से इंकार कर दिया था. एड्स से पीड़ित होने के कारण उसे अपनी नौकरी में भी असह्यजता झेलनी पड़ी थी. सुप्रीमकोर्ट ने निर्णय देते हुए कहा था कि जहाँ तक पुरुष को ऐसी जानकारी गोपनीय रखने का मौलिक अधिकार था वहीँ उस स्त्री को यह जानने का भी मौलिक अधिकार था कि उसका होने वाला पति एड्स ऐसे संचारी रोग से पीड़ित तो नहीं है? इन दोनों के मौलिक अधिकारों में संघर्ष की स्थिति में स्त्री का अधिकार प्राथमिकता पायेगा क्योंकि इसमें जनहित शामिल है .यदि बिना जानकारी के ऐसा विवाह हो जाये तो इससे आगे होने वाली पीढ़ी के भी ग्रसित होने का खतरा है.अतः पैथालोजी को जानकारी उजागर करने के लिए दायित्वाधीन नहीं ठहराया जा सकता है.
मौलिक अधिकारों में मुठभेड़ का रोचक मुकदमा  महाराष्ट्र राज्य बनाम इंडियन होटल एंड रेस्टोरेंट्स संघ (२०१३ ) भी है जिसे बाम्बे बार डांस केस के नाम से भी जाना जाता है. महाराष्ट्र  सरकार ने क़ानून बनाकर शराबखानों में डांस करने पर पाबंदी लगा दी थी.इसके औचित्य को सिद्ध करते हुए राज्य सरकार की ओर से कहा गया कि यह डांस अश्लील होते हैं,वैश्यावृत्ति को उकसाते हैं और कामुकता फैलाते हैं. इसके विपरीत होटल मालिकों तथा बार बालाओं के द्वारा कहा गया कि उन्हें रोज़गार करने का मौलिक अधिकार है.विभिन्न पहलुओं पर निर्णय देते हुए सुप्रीमकोर्ट ने अभिनिर्धारित किया था कि सड़कों पर भीख मांगने या अस्वीकार्य माध्यम के द्वारा रोज़गार पाने की तुलना में डांस करके जीवन यापन गुजारना कहीं अधिक श्रेयस्कर है. शीर्ष अदालत का कहना था कि बार बालाओं को जीवन यापन तथा/या पुनर्वास का अधिकार है और यदि राज्य इनकी व्यवस्था नहीं कर पाता तो बार में डांस करने से रोकना अनुचित है. 


एन.डी.तिवारी  बनाम रोहित शेखर (२०१२) में एक पिता-पुत्र के बीच प्रतिष्ठा के मौलिक अधिकारों का द्वन्द था. रोहित शेखर अपने को एन.डी.तिवारी का पुत्र मानता था तथा पितृत्व की पुष्टि के लिए अपने पिता के रक्त के नमूने की मांग कर रहा था जिससे डी. एन. ए. टेस्ट कराया जा सके.उसका कहना था कि पिता का नाम निर्धारण उसके प्रतिष्ठा के अधिकार में शामिल है जबकि तिवारी का तर्क था कि उन्हें रक्त सैम्पुल देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता क्योंकि यह उनकी निजता तथा नेकनामी के अधिकार का अतिक्रमण होगा अर्थात पिता-पुत्र दोनों ही अपनी प्रतिष्ठा तथा नेकनामी के अधिकारों का दावा कर रहे थे. न्यायालय ने पुत्र के अधिकार को अधिक शक्तिशाली पाया क्योंकि इससे उसकी समाज में प्रास्थिति स्थापित होती है जो लोक नीति के अनुरूप है.


चुनाव लड़ने वाले अभ्यर्थियों के लिए परचा भरते समय अपनी शयक्षित योग्यता, अस्तियों तथा दायित्यों का विवरण तथा खिलाफ चल रहे आपराधिक मुकदमों का शपथपत्र अनिवार्य करने के सुप्रीमकोर्ट के निर्णय के समय भी अभ्यर्थी की निजता तथा नागरिकों के अपने होने वाले प्रतिनिधि के बारे में जानकारी प्राप्त करने के मौलिक अधिकारों में धर्मसंकट के प्रश्न थे लेकिन शीर्ष न्यायालय ने पी.यू.सी.एल. बनाम भारत संघ (२००३) में जानकारी के अधिकार को लोकहित में प्राथमिकता पूर्ण  माना था तथा लोक प्रतिनिधित्व कानून में आवश्यक संशोधन करने का निर्देश दिया था.


दरअसल, मौलिक अधिकारों में द्वन्द के प्रश्न संविधानिक दुविधा से उदभूत हैं जब अधिकारों में सामंजस्य/ संतुलन करते हुए उनमें स्पर्धा तथा/या असमंजस के अंश प्रस्फुटित होते हैं.वाक स्वतंत्रता तथा निजता,समता तथा भेदभाव एवं धार्मिक स्वतंत्रता बनाम स्त्रियों के अधिकारों के मध्य ऐसे टकरावों के प्रकरण न्यायालय की दहलीज पर गए हैं. विधि के सिद्धांतों तथा संविधानिक दर्शन के मध्य संतुलन आसान नहीं है और यह तब और भी मुश्किल है जब एक ही पटल पर विपरीत ध्रुव के अधिकारों का दावा किया जाये. लोकनीति एक फिसलन भरी राह है तथा समय,काल तथा परिवेश में बदलती रहती है. किसी स्थिति विशेष में एक को प्राथमिकता देकर दूसरे को अधीनस्थ किया जा सकता है,लेकिन एक सर्वमान्य तथा तार्किक हल असंभव नहीं तो दुरूह अवश्य है.लेकिन इससे निराश होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जब हम यह जान जाते हैं कि इन अधिकारों में वास्तविक द्वन्द क्या है तब हमें निश्चयात्मक निर्णय पर पहुँचने में देर नहीं लगती. जनतंत्र में मानवाधिकारों तथा मौलिक अधिकारों के बढते कैनवास को संविधान में आत्मसात करने के लिए न्यायपालिका ने अर्थान्वयन के नये सिद्धांत प्रतिपादित कर लिए हैं और यह एक स्वागत योग्य कदम है.

डा. निरुपमा अशोक
प्राचार्य, भगवानदीन आर्य कन्या महाविद्यालय , लखीमपुर खीरी (उ०प्र०)

Tuesday, 17 April 2018

केरल अध्यादेश पर रोक से उपजे साख,औचित्य तथा साम्विधानिकता के प्रश्न!





अभी हाल में सुप्रीमकोर्ट ने  केरल सरकार द्वारा प्रख्यापित केरल प्राइवेट कॉलेज ( रेगुलेशन ऑफ़ एड्मिसन इन मेडिकल कॉलेज ) अध्यादेश, २०१७  पर स्थगन आदेश देकर इसके क्रियान्वयन पर रोक लगा दी है. सत्र २०१६-१७ में राज्य के कुछ प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों ने विधि विरुद्ध प्रवेश किये थे जिसे भारतीय आयुष परिषद् की प्रवेश अधिवीक्षण समिति ने निरस्त कर दिया था. केरल हाईकोर्ट नें भी इन प्रवेशों को कानून सम्मत नहीँ मना था तथा अपील में सुप्रीमकोर्ट  ने भी हाईकोर्ट के निर्णय पर मोहर लगा दी थी. लेकिन उच्चतर न्यायपालिका के स्पष्ट निर्णयों को दरकिनार करते हुए राज्य सरकार ने राज्यपाल के हस्ताक्षरों से उक्त अध्यादेश जारी कर दिया जिसको असाम्विधानिक मानते हुए सुप्रीमकोर्ट की खंड पीठ ने रोक लगा दी है.ज्ञातव्य है कि केरल में इस समय भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सथासिवम राज्यपाल हैं.विधि से सरोकार रखने वाले क्षेत्रोंमें आश्चर्य मिश्रित प्रतिक्रिया है कि मुख्य न्यायाधीश रहे राज्यपाल ने ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने से पूर्व विधिक स्थिति की पूरी जानकारी क्यों नहीं ली ?


सांविधानिक भटकाव की यह पहली घटना नहीं है.तमिलनाडु की राज्यपाल रही जस्टिस फातिमा बीवी को भी २००१में जयललिता को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के कारण विवाद हुआ था जिसकी परिणित अंततः उनके इस्तीफे से हुई थी. दरअसल अन्नाद्रमुक पार्टी ने मई २००१में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया था लेकिन निरर्हता के चलते जयललिता स्वयं विधानमंडल की सदस्य चुने जाने के अयोग्य थीं. इसके बावजूद राज्यपाल फातिमा बीवी ने उन्हें मुख्य मंत्री की शपथ दिला दी थी.इस नियुक्ति को सुप्रीमकोर्ट ने अवैध ठहराया था तथा राज्यपाल के इस वैवेकिक कार्य को संविधान के विपरीत करार दिया था. इन विवादों के चलते जस्टिस फातिमा बीवी को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा था .


उच्चतर न्यायपालिका के जजों को राज्यपाल ऐसे कार्यपालिका के पदों पर नियुक्ति को लेकर आलोचना-प्रत्यालोचना होती रही है . कहा जाता है कि कम से कम सुप्रीमकोर्ट के रिटायर जजों को ऐसे पदों पर नियुक्ति लेने से परहेज करना चाहिए क्योंकि इन पदों पर कार्य करते हुए उन्हें तात्कालिक राज्य सरकार के निर्णयों को लागू करना पड़ता है जिसमे अध्यादेश प्रख्यापन तथा/या मुख्यमंत्री की नियुक्ति ऐसी शक्तियों का प्रयोग करना शामिल है और इनमे सांविधानिक अनौचित्यता होने पर मीडिया तथा राजनैतिक विश्लेषकों की तीखी आलोचना का सामना करना पड़ता है.

अनुच्छेद १२४(७)के अंतर्गत प्रावधानित हैकि कोई व्यक्ति, जिसने उच्चतम् न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पद धारण किया है, भारत के भीतर किसी न्यायालय में या किसी अधिकारी के समक्ष अभिवचन  या कार्य नहीं करेगा. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के भी स्थायी न्यायाधीश रहने के पश्चात् विधि व्यवसाय पर निर्बन्धन है. लेकिन इन न्यायाधीशों के संवैधानिक पद नियुक्ति पर कोई रोक नहीं है. हरगोविंद पन्त बनाम रघुकुल तिलक (१९७९)में  में सुप्रीमकोर्ट ने अभिनिर्धारित किया था कि राज्यपाल का पद भारत सरकार के अधीन नहीं है .राज्यपाल का पद एक स्वतंत्र सांविधानिक पद है जो न तो संघ सरकार के नियंत्रण में है और न उसके अधीनस्थ है.


न्यायाधीशों के सेवानिवृत्ति के पश्चात् किसी न्यायालय या अधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य करने पर निर्बन्धन के पीछे लोकनीति है जो व्यक्ति उच्चतर न्यायपालिका का सदस्य रहा है, उसके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत विधि बन जाते हैं तथा अभिलेख न्यायालय होने के कारण इनके द्वारा दिए गए निर्णय वर्षों तक नज़ीर बने रहते हैं. अतः यदि वे किसी मोवक्किल के पक्ष में कोई उलट बहस करते हैं तो न्यायालय के समक्ष धर्म संकट उत्पन्न हो जाएगा.

वैसा ही उलझाव उन स्थितियों में भी उत्पन्न होता है जब ये न्यायाधीश न्यायपालिका से इतर किसी पद का निर्वहन करते हैं. मुख्यमंत्री की नियुक्ति पर विवेकाधिकार पर बहुत सारे निर्वचन उपलब्ध हैं और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश रहे राज्यपाल से इस विवेकाधिकार के प्रयोग पर आम लोगो में सांविधानिक मर्यादा रक्षा हेतु अतिरिक्त अपेक्षाएं होना स्वाभाविक हैं. एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाना जो पद के लिए अर्हता ही न रखता हो, सामान्य भूल नहीं मानी जा सकती है.इसी प्रकार ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करना जो सुप्रीमकोर्ट के स्वयं के निर्णय को जानबूझ कर पलटता हो, एक आम नागरिक में न्यायालय के प्रति सम्मान में न्यूनता लाएगा.
भारतीय संविधान शक्ति प्रथक्करण सिद्धांत को विधायिका तथा कार्यपालिका के मध्य लागू करने में भले ही शिथिल हो लेकिन न्यायपालिका की स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता के प्रति अतिसंवेदनशील है. न्यायाधीशों के निश्छल,निष्पक्ष तथा निर्विकार व्यक्तित्व के कारण ही उन्हें कार्यपालिका में कोई पद नहीं दिए जाते. कई बार जज लोग स्वयं भी विनयपूर्वक अस्वीकार कर देते हैं जिससे उन्हें असुविधाजनक स्थितियों का सामना न करना पड़े. वैसे भी विधि की अनभिज्ञता तो किसी को भी सुरक्षा नहीं देती, न्यायमूर्तियों से तो अतिरिक्त सतर्कता की दरकार होती है!


स्वतंत्रता के बाद कई पूर्व न्यायाधीशों ने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ा है लेकिन किसी भी सत्ताधारी राजनैतिक दल ने समर्थन नहीं किया और चुनाव अंततः प्रतीकात्मक ही रहा.जस्टिस हिदायतुल्लाह को उपराष्ट्रपति पद पर  ही संतोष करना पड़ा. इसका करण भी स्पष्ट है. राजनैतिक दल नहीं चाहते कि उस पद पर बैठा व्यक्ति उनसे सवाल जवाब करे. जस्टिस सथासिवम द्वारा जब राज्यपाल का पद स्वीकार किया गया था तब कतिपय क्षेत्रों में प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई थी. उनके द्वारा प्राख्यापित अध्यादेश पर रोक लगाने से सुप्रीमकोर्ट की साख तो बच गयी लेकिन राज्यपाल पद की ऐसी किरकिरी हुई है जो भविष्य में याद रखी जायेगी.