बिहार से भाजपा सांसद ने इस सदी के महानायक माने जाने वाले अमिताभ बच्चन को अगला राष्ट्रपति बनाने हेतु नाम सुझाया है। वर्तमान राष्ट्रपति का कार्यकाल 25 जुलाई 2017 को समाप्त हो रहा है। निश्चय ही अब उपयुक्त समय है जब संभावित नामो पर विचार प्रारम्भ हो। महानायक की, इस पेशकश पर प्रतिक्रिया अभी नहीं आई है। इलाहाबाद से सांसदी से इस्तीफा देते हुए उन्होंने राजनीति को नाबदान ( सेस्पूल ) अवश्य कहा था।
यों तो हमारे यहाँ संसदीय जनतंत्र है जो इंग्लैंड से आयातित है लेकिन ब्रिटिश सम्राट की तरह हमारा राष्ट्रपति वंशानुगत नहीं होता। हमारे यहाँ पांच वर्ष के लिए चुनाव होता है तथा उसे संविधान के उल्लंघन के लिए महाभियोग के द्वारा पद से हटाया भी जा सकता है। वह संघ की कार्यपालिका का कर्ताधर्ता होता है लेकिन वास्तव में वह सभी कार्य मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता से करता है। वह तीनोँ सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर होता है लेकिन वह इस बारे में विहित विधि से बाध्य है। क्षमादान की शक्ति भी वह मंत्रिपरिषद की सलाह पर इस्तेमाल करता है। उसे देश का सर्वोच्च पदाधिकारी कहा जाता है लेकिन सारी शक्तियां प्रधानमंत्री तथा कैबिनेट में होती है। चुनाव में यदि कोई दल बहुमत न पाये तो प्रधानमंत्री चुनने में उसे थोड़ा बहुत विवेकाधिकार प्राप्त है अन्यथा वह नाम मात्र का शासक ही समझा जाता है।
डा. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर वर्तमान प्रणव मुखर्जी तक 13 राष्ट्रपति चुने गए हैं। राजेंद्र जी अकेले राष्ट्रपति थे जो दो बार चुने गए बाक़ियों को एक बार ही मौका मिला। डा. जाकिर हुसैन तथा डा. फखरुद्दीन अली अहमद अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये तथा बीच में ही दिवंगत हो गए। शुक्र है कि अभीतक किसी भी राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग चलाने की नौबत नहीं आई तथा कुछेक घटनाओं को छोड़ कर सभी के कार्यकाल प्रायः निर्विवाद रहे हैं।
स्वतंत्र भारत में राष्ट्रपति चुनाव का इतिहास बड़ा रोचक रहा है। कम से कम तीन बार सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने अपनी किस्मत आजमाई लेकिन वे असफल रहे। सन 1967 में डा. ज़ाकिर हुसैन ने जस्टिस कोका सुब्बाराव को हराया ,1982 में ज्ञानी जैल सिंह ने जस्टिस एच. आर. खन्ना को तथा 1987 में श्री आर. वेंकटरमण ने जस्टिस वी. आर. कृष्णा अय्यर को शिकश्त दी। और तो और अपने समय के बहु चर्चित चीफ इलेक्शन कमिश्नर श्री टी. एन शेषन भी श्री के आर नारायणन से चुनाव हार चुके हैं। जस्टिस हिदायतुल्लाह अवश्य भाग्यशाली रहे जो भारत के मुख्य न्यायाधीश होने के कारण कुछ समय के लिए कार्यवाहक राष्ट्रपति रहे है।
राष्ट्रपति को ब्रिटिश परम्पराएँ सिर्फ एक रबर स्टैम्प का ओहदा देती हैं लेकिन लिखित संविधान होने तथा सांसदों एवं राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित विधायकों से सीधे चुने जाने के कारण राष्ट्रपति कीपोजीशन ब्रिटिश साम्राज्ञी से अलग और ऊँची है। उसे अमेरिकन प्रेसीडेंट की तरह कार्यपालिका की प्रत्यक्ष शक्तिया तो नहीं होती लेकिन उसका व्यक्तित्व तथा जनसामान्य में उसकी पकड़ कई बार राजनैतिक आकाओं के लिए परेशानी पैदा करती है.
प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद , जो स्वयं संविधान सभा के अध्यक्ष थे तथा प्रख्यात विधिवेत्ता थे , ने इंडियन लॉ इंस्टिट्यूट के भवन का शिलान्यास करते हुए 1955 में विशेषज्ञों से भारत के राष्ट्रपति की संवैधानिक स्तिथि पर अनुसन्धान करने की अपील की थी। उस समय कांग्रेस पार्टी का प्रचंड बहुमत था लेकिन राष्ट्रपति की प्रास्थिति पर विचार -विमर्श प्रारम्भ हो गया था। 1969 में डा. ज़ाकिर हुसैन के असामयिक निधन के बाद हुए चुनाव में बहुमत के बावजूद कांग्रेस के अधिकृत उम्मीद्वार नीलम संजीव रेड्डी को हार का सामना करना पड़ा था जब इंदिरा गांधी ने 'आत्मा की आवाज 'पर वी वी गिरि को जिताने हेतु पूरा जोर लगाया था।
राष्ट्रपति पद की संशय की स्तिथि को दूर करने के लिए 42 वें संशोधन के द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया कि वह मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य होगा। सभी राजनैतिक दल यह मानते हैं कि राष्ट्रपति ब्रिटिश सम्राट की भांति एक रबर स्टैम्प है। जनता पार्टी की सत्ता में 42 वें संशोधन के कई खंड निरस्त कर दिए गए लेकिन राष्ट्रपति से सम्बंधित अनुच्छेद में परिवर्तन नहीं किया गया। केवल एक परन्तुक जोड़ दिया गया कि राष्ट्रपति किसी सलाह को एक बार के पुनर्विचार के लिए वापस लौटा सकेगा।
यो तो राष्ट्रपति समारोही अध्यक्ष ही होता है लेकिन उसका व्यक्तित्व तथा पब्लिक में इमेज कई बार महत्वपा जाती है। डा. राधाकृष्णन एक उच्चकोटि के दार्शनिक थे तथा वी वी गिरि ख्यातिप्राप्त श्रमिक नेता थे ,लेकिन इन को दूसरा टर्म नहीं दिया गया। डा. ए पी जे अब्दुल कलाम मिसायल टेक्नोलॉजी के विश्व प्रसिद्द विद्वान थे। राष्ट्रपति बनने के बाद वे बच्चों तथा युवाओं के बीच बहुत ही लोकप्रिय हो गए थे। उन्हें जब चुना गया था तब उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा की भूरि भूरि प्रशंसा की गयी थी लेकिन उनके राज़ी होने के बावजूद उन्हें दूसरा टर्म नहीं दिया गया। डा. कलाम की प्रसिद्धि तथा क्षमा दान शक्ति पर दिशानिर्देश बनाने की सलाह व्यवस्था को रास नहीं आई थी। यहाँ ज्ञानी जैल सिंह का भी उल्लेख समीचीन होगा जिन्होंने चुनाव के समय कहा था कि वे इंदिरा जी के कहने पर कहीं भी झाड़ू लगा सकते हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में राजीव गांधी ने प्रायः तीन चौथाई बहुमत पाया था लेकिन ज्ञानी जी उन्हें बर्खास्त करना चाहते थे। कहा जाता है कि आपातस्तिथि की उद्घोषणा पर फखरुद्दीन अली अहमद की ना -नुकुर पर इंदिरा जी ने नाराज़गी व्यक्त की थी। ऐसी ख़बरों के बाद ही राजनैतिक गलियारों में यह निश्चित किया गया कि इस पद पर निष्ठा या वफादारी को ही एकमात्र पैमाना न बनाया जाये तथा कार्यकाल पांच वर्ष ही रहे।
यह कोई संयोग नहीं है कि इस पद पर आज तक न्यायपालिका या सेना के किसी व्यक्ति की नियुक्ति नहीं की गयी है। जबकि कई पूर्व पदाधिकारी राज्यपाल ,केंद्र तथा राज्य मंत्रिमंडल के सदस्य तथ अन्यान्य पदो पर प्रतिष्ठित किये जाते रहे हैं। कहने को तो राष्ट्रपति को दोस्त ,दार्शनिक तथा पथ प्रदर्शक कहा जाता है लेकिन पद पर बैठे व्यक्ति से उम्मीद की जाती है कि वह डॉटेड लाइन पर सिग्नेचर करता रहे और राष्ट्रपति भवन तथा मुग़ल गार्डन के ग्लैमर तथा राजदूतों के परिचय पत्र प्राप्त करने में आनंदित होता रहे। परिस्थितियों से समझौता कर राष्ट्रपति भवन में अपने को सीमित करने वाला ही उपयुक्त माना जाता है। व्यवस्था को रीढ़ वाले तथा संविधान की मूल भावना के अनुसार काम करने वालों से डर लगता है। उन्हें ऐसा व्यक्ति चाहिए जिसको मरणोपरांत "रायसीना का दार्शनिक " कह कर श्रद्धांजलि दी जा सके।

