मद्रास हाई कोर्ट के एक जज का ट्रांसफर हो गया। सम्बंधित जज ने उस आदेश पर खुद ही रोक लगा दी और उस पर आदेश पारित कर दिए। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। वहां की बेंच ने हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को अधिकृत किया है कि जज साहब को न्यायिक कार्य से विरत रखा जाये। अब देखना है कि जज साहब ट्रांसफर आर्डर मानते हैं या नहीं। जज साहब पहले भी चर्चित रहे हैं। वे जातिवाद का आरोप लगाते रहे हैं।
न्याय सिद्धांत का पहला नियम है कि कोई भी व्यक्ति स्वयं के मामले में निर्णायक नहीं हो सकता। यदि कोई व्यथित है तो उसके पास कानूनन कई विकल्प होते हैं। यदि प्रशासनिक उपचार न मिले तो कोर्ट में पेटिशन भी किया जा सकता है , लेकिन जो हुआ है वह भारतीय न्यायपालिका में पहले कभी नहीं हुआ।
इंडियन कंस्टीटूशन में सुप्रीम कोर्ट तथा हाई कोर्ट्स सांविधानिक स्थिति प्राप्त हैं तथा दोनों सामानांतर हैं। कई मामलों में हाई कोर्ट को अधिक शक्तियां प्राप्त हैं। जजों के ट्रांसफर राष्ट्रपति करते हैं लेकिन वह भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर होता है। जैसा कि सभी जानते हैं इस मामले में कालीजियम की राय सर्वोपरि होती है। अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने सम्बंधित संविधान संशोधन तथा नेशनल जुडीशियल अपॉइंटमेंट कमीशन के कानून रद्द कर दिए हैं।
प्रश्न किया जा रहा है कि जज साहब का उक्त कृत्य कदाचार' है या नहीं ? किसी जज को अपने पद से हटाने के लिए कदाचार सिद्ध करना होगा। पद से हटाने के लिए संसद में अभियोग चलाना होगा। अगड़ों - पिछड़ों की जातिवादी राजनीति करने वाले दल कभी हिम्मत नहीं दिखा पाएंगे। न्यायिक अनुशासन भंग का विलक्षण दृश्य हमारे सामने है.और हम खामोश हैं क्योंकि अदालत जारी है।
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