अभी हाल में इलाहाबाद हाई कोर्ट की एक डिवीज़न बेंच ने बलात्कार की पीड़िता के नवजात शिशु के पुनर्वास तथा उत्तराधिकार को लेकर जो आदेश पारित किये हैं उसने एक नई बहस को जन्म दिया है. ज्ञातव्य है कि एक तेरह वर्ष की लड़की के साथ बलात्कार हुआ था. जब उसे एहसास हुआ कि वह गर्भवती हो चुकी है तब तक देर हो चुकी थी. उसके पिता ने हाई कोर्ट में गुहार लगाई कि उसे अपनी बेटी के एबॉर्शन की परमिशन मिलनी चाहिए , लेकिन 20 सप्ताह बीत चुके थे। न्यायमूर्ति गण ने डॉक्टर्स के एक पैनल से परामर्श किया लेकिन पाया गया कि इतनी अवधि बीतने पर एबॉर्शन बायोलॉजिकल मदर तथा शिशु के लिए घातक होगा अतः उसकी परमिशन नहीं दी जा सकती। अंततः एक पूर्ण विकसित बच्ची का जन्म हुआ।
अभागी माँ तथा उसका परिवार इस बच्चे को पालने के लिए तैयार नहीं है। वे लोग इसे गोद देना चाहते हैं लेकिन फिलहाल कोई सामने नहीं आ रहा। ऐसे में जस्टिस शबीहुल हसनैन तथा जस्टिस डी. के. उपाध्याय की खंड पीठ ने आदेश दिया है कि इस बच्ची की देख रेख तथा शिक्षा दीक्षा राज्य सरकार करेगी। बालिग़ होने पर उसे अपने जैविक पिता की संपत्ति में हिस्सा पाने का अधिकार होगा।
न्यायमूर्तिगण ने अपने उक्त आदेश से पूर्व न्यायविदों , वकीलों तथा सम्बंधित संस्थाओं से सलाह भी मांगी थी। सबको सुनने के बाद उक्त आदेश पारित किया गया। इस परिस्थित विशेष में यह आदेश अपेक्षित हो सकता है लेकिन इससे जुड़े तमाम पहलुओं पर आने वाली प्रतिक्रियाएं कई विवादित प्रश्नों की ओऱ ध्यान आकर्षित कर रही हैं।
16 दिसम्बर को दिल्ली में हुई शर्मनाक घटना के बाद बलात्कार के आरोपी को कड़े से कड़ा दंड देने की मांग हो रही है। जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी अपनी संस्तुति में इसकी पुष्टि की है. लेकिन उसके बाद के विनिश्चयोँ में बलात्कार दंड शास्त्र के कई नए आयाम उद्घाटित हुए हैं। एक जज ने तो बलात्कारी के बंध्याकरण तक की बात कही है।
एक वाद में कोर्ट ने आरोपी की मांग ठुकरा दी जिसमें उसने पीड़िता से विवाह की पेशकश की थी। उस वाद में भी आरोपी को सजा दी गई जिसमें पीड़िता विवाह को राज़ी थी। न्यायालय का कहना था कि विधि शास्त्र , अपराध को समाज के विरुद्ध किया गया दुष्कृत्य मानता तथा अपराधी को इसी कारण सजा भुगतनी पड़ती है।
लेकिन एक अन्य बहुचर्चित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक कुंवारी महिला को बच्चे की माँ का दर्ज़ा देते हुए पासपोर्ट अधिकारियों को आदेश दिया था कि माँ को ऐसे बच्चे के पिता का नाम बतलाने के लिए विवश न किया जाये। दरअसल , इस महिला के अपने किसी करीबी विवाहित पुरुष से शारीरिक सम्बन्ध हो गए थे जिसकी परिणिति इस बच्चे के जन्म में हुयी। महिला ने कोर्ट में एफिडेविट दिया है क़ि वह तथा उसकी संतति सम्बंधित पुरुष से कभी भी गुज़ारा भत्ता तथा /या संपत्ति में हक़ की मांग नहीं करेंगे। उस पुरुष की पहचान भी उजागर नहीं की गयी है। न्यायालय ने बच्चे के वृहत्तर हितों को ध्यान में रखते हुए उक्त आदेश पारित किया। वैसे तो पासपोर्ट हर व्यक्ति को पाने का अधिकार है तथा माँ को अपने बच्चे को पालने का हक़ है लेकिन यह प्रश्न अनुत्तरित है की महिला भले ही अपने एफिडेविट से बाध्य हो ,लेकिन एक बालिग को बाँधा नहीं जा सकता। वह अपने आप में एक स्वतंत्र इकाई है। वैसे भी विधि के विरुद्ध विवंधन लागू नहीं होता।
आज की सामाजिक संरचना में प्रत्येक बच्चे को माँ-बाप का नाम आवश्यक समझा जाता है। अभी थोड़े ही समय पूर्व एन डी तिवारी के मामले में उनके पुत्र होने का दावा करने वाले रोहित शेखर की याचिका पर दिल्ली हाई कोर्ट ने डी एन ए परीक्षण के आदेश दिए थे। इस वाद में भी रोहित शेखर ने कहा था कि वे संपत्ति में उत्तराधिकार लेने के लिए नहीं बल्कि पिता का नाम पाने के लिए लालायित हैं जो संविधान के अनुच्छेद 21 ( जीवन का अधिकार ) में शामिल है। इस प्रकरण का सुखद पटाक्षेप हो गया।
कुछ वर्ष पूर्व फ्रांस में एक स्त्री को अपने मृत प्रेमी से विवाह की अनुमति दी गयी थी। दरअसल दोनों विवाह करने जा रहे थे कि प्रेमी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। दुर्घटना के समय स्त्री गर्भवती थी तथ बाद में उसने एक पूर्ण विकसित शिशु को जन्म दिया। जब वह बच्चा स्कूल गया तो साथी बच्चे उसके पिता का नाम पूंछते थे। इसी पहचान को पाने के लिएस्त्री ने मृत व्यक्ति से विवाह करने की अनुमति मांगी थी जिसे डी एन ए परीक्षण के बाद मान लिया गया।
विधिक पत्नी से इतर संबंधों से होने वाले बच्चे 'अवैध ' कहलाते हैं तथा उन्हें गुज़ारा भत्ता प्राप्त हो सकता है लेकिन संपत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त नहीं है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है की यह बच्चा अवैध माना जायेगा लेकिन यह आरोपी की संपत्ति में हिस्सेदार होगा। एक अपराध से जन्मे बच्चे को क्या ऐसा अधिकार दिलाया जा सकता है ?
पुरातन हिन्दू विधि में 'असुर' विवाह भी एक कोटि थी जिसमे ज़बरदस्ती यौन सम्बन्ध बनाने पर विवाह हो जाता था। अब यह सम्भव नहीं है। जब यह बच्ची परिपक्व होगी तथा उसे अपनी परिस्थिति का ज्ञान होगा तब वह अपने जैविक माता-पिता के प्रति कैसा भाव रखेगी, यह भविष्य के गर्भ में है। लड़की होने के कारण उसे अतिरिक्त सुरक्षा कवच की भी आवश्यकता होगी। यहाँ तो माँ भी अपना नाम देने को उत्सुक नहीं दिखती।
यहाँ यह भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि यदि आरोपी पुरुष को गुज़ारा भत्ता / संपत्ति में उत्तराधिकार देना पड़ा तो बलात्कार पीड़िता की हत्या कारित करने की घटनाएं बढ़ेंगी। तलाक़ के मामलों में भी बच्चे की कस्टडी देते हुए उसके हित को सर्वोपरि माना जाता है लेकिन परिपक्व होने पर उसकी क्या इच्छा/आवश्य्कता होगी, पर ध्यान नहीं दिया जाता। घरेलू हिंसा के विरुद्ध बने कानून में भी ऐसे सम्बन्ध में रह रही स्त्री को सुरक्षा दी गयी है लेकिन यह सारे कानून अभी अपनी शैशवास्था में हैं और रोज़ नई समस्याएं सामने आ रहीं हैं। प्रश्न सिर्फ आर्थिक सुरक्षा तक सीमित नहीं है , सामाजिक परिस्थिति अधिक महत्वपूर्ण है और हाई कोर्ट का निर्णय इस मुद्दे पर चुप है।